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महाप्रज्ञ-दर्शन किसी आत्मा की स्वतंत्रता का अपहरण है | व्यवहार में इसका फलित यह होना चाहिए कि प्रथम तो हम अपनी आवश्यकताओं को कम करें और दूसरे जिन आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही हो उनकी पूर्ति का ऐसा उपाय सोचें कि कम से कम प्राणियों को कम से कम कष्ट पहुंचे। आवश्यकताओं को कम करना हिंसा का निवृत्ति पक्ष है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऐसी सावधानी बरतना कि कम से कम प्राणियों को कम से कम कष्ट पहुंचे अहिंसा का प्रवृत्ति पक्ष है। जैन परिभाषा में प्रथम गुप्ति है द्वितीय समिति। क्यों होती है हिंसा ?
प्रश्न होता है कि यह बात समझ लेने पर भी मनुष्य इसे अपना क्यों नहीं पाता? इसके अनेक कारण हैं। हमारे जीवन में अनेक प्रतिकूलताएं उपस्थित होती हैं। यदि कोई व्यक्ति हमारा विरोध करता है तो हम सहज ही उसे चोट पहुंचाना चाहते हैं। यदि हमारी कोई इच्छा पूरी नहीं होती है तो या तो हम आवेश में आ जाते हैं या निराश हो जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में हम क्रोध से भर जाते हैं। वही क्रोध जब किसी को अपना लक्ष्य बनाता है तो हिंसा में बदल जाता है। हिंसा का शमन ध्यान के द्वारा
आवेश हो या निराशा-दोनों स्थितियों में तनाव उत्पन्न होता है। तनाव के तीन माध्यम हैं
१. शरीर अर्थात् मांसपेशियों में तनाव । इसका उपाय है-शिथिलीकरण । २. मानसिक तनाव अर्थात् अन्तर्द्वन्द्व । इसका उपाय है-दीर्घश्वास प्रेक्षा ।
३. भावनात्मक तनाव अर्थात कषाय का उदय । इसका उपाय है-श्वास प्रेक्षा और आज्ञाचक्र अथवा ज्योतिकेन्द्र पर ध्यान । चैतन्य केन्द्रों अथवा चक्रों पर ध्यान करना रासायनिक संतुलन उत्पन्न करना है। दर्शन केन्द्र पर ध्यान से पिच्यूटरी का स्राव, ज्योति केन्द्र पर ध्यान से पिनियल का स्राव, विशुद्धि केन्द्र के ध्यान से थायरायड का स्राव और तैजस केन्द्र के ध्यान से एड्रीनल का स्राव संतुलित होता है।
नाड़ी तंत्रीय असंतुलन भी व्यक्ति को क्रूर बना देता है। उसका उपाय है-समवृत्ति श्वासप्रेक्षा । इससे पिंगला यानि अनुकंपी और इडा यानि परानुकंपी नाडी तंत्र में संतुलन उत्पन्न होता है । इस प्रकार ध्यान के विविध रूप हिंसा की जड पर प्रहार करते हैं। आहार और अहिंसा
जैन परम्परा में आहार संयम पर बहुत बल है। हमारे शरीर की प्रथम
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