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महाप्रज्ञ-दर्शन
साधन नहीं बन सकती अपितु वह तो धन के सम-वितरण का ही उपाय बनती
है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा के अछूते पहलुओं के साथ-साथ महावीर के अर्थशास्त्र पर भी अपनी लेखनी चलाई। “महावीर के अर्थशास्त्र में उन्होंने १५१ पृष्ठों में अपरिग्रह के विभिन्न पहलुओं को तो छुआ ही किंतु सौ से अधिक पृष्ठों के परिशिष्ट में वे अनेक तथ्य भी उद्धृत किये जो परिग्रह और हिंसा के कारण उत्पन्न हुए संकट को रेखांकित करते हैं।
इस संकट का समाधान दो दृष्टियों से ढूंढना होगा-आर्थिक दृष्टि और पर्यावरण की दृष्टि । प्रथम पर्यावरण की दृष्टि से विचार करें। पर्यावरण और अहिंसा
प्रदूषण के जो खतरे हैं, वे सर्वनाश की ओर ले जाने वाले हैं। इस तथ्य को अभी समझ नहीं पा रहे हैं। दूसरे पर्यावरण की रक्षा के लिए केवल इतना समझना पर्याप्त नहीं है कि प्रकृति हमारे लिए उपयोगी है। समझना यह है कि हम प्रकृति के एक अवयव हैं। अवयवी के नष्ट होने पर अवयव स्वयं ही नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार हममें जीवन है, प्रकृति के कण-कण में जीवन है। मनुष्य इस सर्वव्यापी जीवन की उपेक्षा करके अपने जीवन को नहीं बचा सकता। यदि उसे अपना जीवन बचाना है तो जीवन के हर रूप को पशु-पक्षी, पेड़-पौधे यहां तक कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तक को सम्मान देना होगा। यह पृथ्वी ग्रह केवल हमारे लिए नहीं बना है। यह जीवन के हर रूप का घर है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु हममें से किसी की सम्पत्ति नहीं है। हमने इन्हें उत्पन्न नहीं किया है। हमें उन्हें नष्ट या दूषित करने का अधिकार भी नहीं है। एक सीमा तक अपने प्रयोग के लिए इनके उपयोग द्वारा हम इन्हें जितना दूषित करते हैं उतना प्रदूषण दूर करने की व्यवस्था तो प्रकृति में है किंतु जब हम उस सीमा का अतिक्रमण करते हैं तो संकट उत्पन्न हो जाता है।
एक समय था कि पूरे संसार में दासप्रथा थी। पैसा देकर स्त्री-पुरुष को खरीद लिया जाता था। ऐसे स्त्री-पुरुष पर स्वामी का पूर्ण अधिकार था कि वह उनसे मनमाना व्यवहार कर सकता। सैकड़ों साल के संघर्ष के बाद दास प्रथा समाप्त हुई लेकिन अभी भी हम पशुओं को अपना दास और प्रकृति को अपनी दासी मानते हैं। जिस जल का पैसा हमने चुका दिया उस जल के साथ हम मनमाना व्यवहार करने के लिए स्वयं को स्वतंत्र समझते हैं | मूक पशु और मूक वृक्ष भी खरीदे और बेचे जाते हैं। उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। वे किसी न्यायालय की शरण में नहीं जा सकते किंतु यदि हम उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं तो प्रकृति हमें क्षमा नहीं करती। जीवन का अस्तित्व प्राकृतिक तत्त्वों
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