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महावीर उवाच
० जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ।
जो जल में आत्मा को स्वीकार नहीं करता, वह अपनी ही आत्मा को अस्वीकार करता है।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति। जो नाना प्रकार के शस्त्रों से जल की हिंसा करता है वह अन्य जीवों की भी हिंसा करता है।
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इच्चत्थं गढिए लोए। सुख-सुविधा के लोभ से मूर्छित मनुष्य जल की हिंसा करता है।
भगवान महावीर की इस दूर दृष्टि को न समझ कर प्रकृति के जल तत्व से छेड़-छाड़ करने का दुष्परिणाम भी पूर्वोद्धृत "हमारा पर्यावरण” नामक ग्रंथ से देखने योग्य है
एक समय था जब हमारे शहरों और गांवों में तालाब और पोखर बहुत पवित्र सार्वजनिक संपदा की तरह संभाल कर रखे जाते थे। (पृष्ठ ३५)
१६७४ में ४० करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी बहा, लेकिन उपयोग में केवल ३.८० करोड़ हेक्टेयर मीटर (क. हे. मी.)-६.५ फीसदी ही-आया ।
पिछले कुछ वर्षों से भूमिगत जल का भयानक गति से उपयोग बढ़ता जा रहा है। इससे नदी से पानी का रिसाव बढ़ेगा।
अंदाज है कि सन् २०२५ तक भूमिगत पानी को ऊपर खींचने का प्रमाण आज के १.३. क. हे. मी. से बढ़कर ३.५ क.हे.मी. होने वाला है। (पृष्ठ ३६)
हर एक विपत्ति के बाद कंबल और दवाई बांटते रहना या सेना को बुलवा लेना कोई हल नहीं है। जरूरी है विपदाओं के सामने डटकर खड़े हों
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