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________________ महावीर उवाच ० से सयमेव पुढवि - सत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढवि - सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणइ । कोई साधक स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वालों का अनुमोदन करता है । O तं से अहियाए, तं से अबोहिए । वह (हिंसा) उसके अहित के लिए होती है वह (हिंसा) उसकी अबोधि के लिए होती है । सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । भगवान या गृह त्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है यह (पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा) ग्रंथि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। ० से बेमि-अप्पे अंधमब्ने अप्पेगे अंधमच्छे। मैं कहता हूं शस्त्र से भेदन छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसी ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है । भगवान महावीर की इस घोषणा का फलितार्थ आज के संदर्भ में मार्च, १६६८ में गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित " हमारा पर्यावरण" नामक ग्रंथ के आलोक में देखने योग्य है। मूल ग्रन्थ के शब्द हैं खान खुदाई के काम में किसी की खैर नहीं । योजना बनाने में और उस पर अमल करने में पूरी सावधानी नहीं बरती जाए तो हर एक खान पास की जमीन को बंजर बना सकती है, पानी को जहरीला कर सकती है, जंगलों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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