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________________ १३० महाप्रज्ञ-दर्शन को जुटाने में ही चुक जाते हैं। फिर भी हम कहते हैं कि आर्थिक प्रगति हो रही गरीबी का अर्थ हमने ऊपर कहा कि माना जा रहा है कि गरीबी हट जायेगी तो सब सुखी हो जायेंगे। गरीबी हटाने की बात सब करते हैं किंतु गरीबी एक सापेक्ष अवधारणा है। भारत का अमीर भी अमरीकी स्तर से गरीब दिख सकता है। कहा जा सकता है कि जिसकी मूलभूत आवश्यकतायें भी पूरी न हों वह गरीब है। किंतु वस्तुस्थिति यह है कि हमारी मूलभूत आवश्यकतओं का दायरा भी बढ़ता रहता है। एक समय घर की बैठक में जमीन पर नीचे बैठने की व्यवस्था हो जाये तो पर्याप्त माना जाता था किंतु आज ड्राइंग रूम में सोफा होना आवश्यक माना जा रहा है। कभी बिजली का पंखा भी कुछ गिने- चुने लोगों के घर में ही था, आज कूलर भी घर-घर में लगा है। टेलिविजन तो रोटी के समान ही अपरिहार्य हो गया है। इस सारी स्थिति पर विचार करने की आवश्यकता है। प्रथम सिद्धान्त तो समझने का यह है कि धन जीवन की प्रथम आवश्यकता है किंतु धन ही जीवन की सम्पूर्ण आवश्यकता नहीं है। धन के साथ मनुष्य सुख भी चाहता है। शास्त्रीय भाषा में धन अर्थ है तो सुख काम है। अर्थ और काम दो भिन्न चीजें हैं-धन ही सुख नहीं है, धन सुख का साधन है। जो धन सुख का साधन नहीं है, वह धन उपादेय नहीं है। धन के लिए धन का उपार्जन व्यर्थ है, धन की उपादेयता तब ही है जब वह सुख दे सके। साधनशुद्धि दूसरी बात ध्यान में रखने की यह है कि धन के उपार्जन के अनेक उपाय हैं। वे सभी उपाय श्रेयस्कर नहीं हैं। यह ठीक है कि अनुचित उपायों से भी धन अर्जित किया जा सकता है और आज की जैसी व्यवस्था है उसमें शायद उचित उपायों की अपेक्षा अनुचित उपायों से कहीं अधिक धन एकत्र किया जा सकता है। उपायों का अनौचित्य अनेक प्रकार का है। हम धनोपार्जन के ऐसे उपाय बरतें जिससे हमारे साथी के साथ अन्याय हो जाये-तो यह धनोपार्जन के उपाय का प्रथम अनौचित्य है। दूसरा अनौचित्य यह है कि हम धनोपार्जन के लिये उत्पादन के वे प्रकार अपनायें जिन प्रकारों से उत्पादन का मूल स्रोत-प्रकृति-ही नष्ट हो जाये और हम एक बार भले ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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