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पर्यावरण भाषियों में रविन्द्रनाथ टैगोर तथा शरच्चन्द्र जैसे लेखक हुए । आज सर्जनात्मक साहित्य के नाम पर तुकबन्दियां ही प्रायः चल रही है। मशीन एकरूपता स्थापित करती हैं, उसमें विविधता नहीं होती इसलिए मशीन के बीच सौन्दर्य खो जाता है। मशीन पर काम करने वाला अपना कोई वैशिष्ट्य नहीं दिखा सकता, अतः उसे काम में उल्लसित होने का अवसर नहीं मिलता। मशीन से किया गया सारा काम मजदूरी है, सर्जन नहीं। सर्जनात्मकता के नष्ट होने का अर्थ है-सौन्दर्य बोध की समाप्ति । सत्यं और शिवं सुन्दरं भी होता है। सौन्दर्य बोध के नष्ट होने का अर्थ है सत्य और शिव के प्रति आकर्षण की न्यूनता।
यही हुआ भी है। उपभोक्ता संस्कृति न सत्य की चिंता करती है न शिव की। सत्य की उपेक्षा का अर्थ है-भ्रष्टाचार। शिव की उपेक्षा का अर्थ है-विकृत मानसिकता। आज वह संगीत जो आत्मा को निर्मल बनाता है उस संगीत के सामने नहीं टिक पा रहा है जो संगीत आत्मा को कलुषित करता है। यही स्थिति साहित्य की है। विश्वविद्यालयों में वे विषय फल-फूल रहे हैं जो व्यवसाय मूलक हैं और वे विषय जो मानवीय मूल्यों को स्थापित करते हैं सूखते जा रहे हैं।
मशीन की एक विशेषता है-कम समय में अधिक उत्पादन कर देना। इस विशेषता ने मनुष्य को अधीर बना दिया है। हमें ज्ञान प्राप्ति का भी ऐसा उपाय चाहिए जो कम समय में अधिक ज्ञान दे दे। इससे बिना आत्मसात् किये ज्ञान का संचय होने लगा है। ऐसा ज्ञान हमारा रूपान्तरण नहीं कर पाता, केवल हमें सूचनाओं से भर देता है। हम धन भी कम समय में अधिक कमाना चाहते हैं। यही भ्रष्टाचार का मूल है। आज के ज्ञान का सार आचार नहीं रह गया। आज के ज्ञान का सार है-अर्थोपार्जन की क्षमता में वृद्धि, चाहे वह अर्थोपार्जन किन्हीं भी उपायों से हो। वह विद्या जो मुक्ति का साधन थी‘सा विद्या या विमुक्तये'-बहुत पीछे छूट गयी है और विद्या जो विदेशी कम्पनियों में नियुक्ति दिला सके-सा विद्या या नियुक्तये-आगे आ गयी है। फलतः मनुष्य धनी भले हो गया हो पर स्वतंत्रता खो बैठा है। उसकी गति उस तोते की सी हो गयी है जिसे खाने को तो अनार और अमरूद मिल जाते हैं किंतु जिसे पिंजरे के बाहर डाल से डाल पर फुदकने की इजाजत नहीं है। यह स्थिति तो उनकी है जो परम सौभाग्यवान् हैं और जिन्हें किसी ऐसी कम्पनी ने ले लिया है जिसमें पगार तो पांच अंकों की है किंतु जो दिवाली या होली भी अपने परिवारवालों के बीच मनाने की इजाजत नहीं देती। ऐसे भाग्यवान् लाखों में एक हैं। शेष ६६.६६६ तो ६६ के फेर में पड़कर लून-तेल-लकड़ी
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