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महाप्रज्ञ-दर्शन प्राप्त न हुआ हो। मेरे जूते पशुओं की खाल से बने हैं, कपड़े कपास के पौधों से प्राप्त हुए हैं और मकान की दीवारें पृथ्वी तथा जल के संयोग से अग्नि की सहायता से बनी है। वायु के योगदान का तो महत्त्व आंकना और भी कठिन है क्योंकि उसके बिना हम एक मिनट भी जीवित ही नहीं रह सकते। प्रकृति का यह उपकार प्रकृति को हमारी माँ बना देता है। प्रकृति हमारी दासी नहीं
है।
प्रकृति के नियम
प्रकृति के नियम अद्भुत हैं। प्रकृति में एक चक्र चलता है। एक पशु मरने से पहले अनेक पशुओं को जन्म दे जाता है, पेड़ भी मरने से पहले अनेक पेड़ों को जन्म दे जाता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु हमारे द्वारा उपयोग में लाये जाने पर अशुद्ध हो जाते हैं किंतु एक ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था है कि वे स्वाभाविक स्थिति में स्वतः ही पुनः शुद्ध हो जाते हैं। पौधे वायु को शुद्ध करते रहते हैं, सूर्य जल को शुद्ध करता रहता है। अग्नि न जाने कितने कूड़े करकट को जलाकर वातावरण को शुद्ध करती रहती है। पृथ्वी अपनी गति से न केवल दिन रात बनाती है अपितु ऋतुओं का निर्माण करके फसलों को पकने में भी सहयोग करती है। प्रकृति की यह सारी व्यवस्था उस पर्यावरण को संतुलित बनाये रखती है जिस पर्यावरण के बिना हमारा अस्तित्व ही संभव नहीं है।
प्रकृति में यह पुनर्नवीकरण-रिसाईक्लिंग-की व्यवस्था हमारे उस मूल पूंजी को समाप्त नहीं होने देती जिसे प्रकृति कहा जाता है। हम नया कच्चामाल पैदा नहीं कर सकते
यह तो अस्तित्व का प्रश्न हुआ। विकास का प्रश्न भी प्रकृति से ही जुड़ा है। कोई भी उद्योग अपना कच्चामाल प्रकृति से ही प्राप्त करता है। उद्योग केवल कच्चेमाल को उपयोगी–फिनिश्ड-रूप में ढाल सकता है किंतु कच्चेमाल को उत्पन्न नहीं कर सकता। उद्योगों को कच्चेमाल के लिये प्रकृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। यह कच्चामाल भी दो प्रकार का है। पशुओं तथा वनस्पतियों से प्राप्त होने वाला कच्चा माल नित्य नया उत्पन्न होता रहता है किंतु खनिज पदार्थों का भण्डार सीमित है-वे खनिज पदार्थ नित्य नये उत्पन्न नहीं होते हैं। कोयला, पेट्रोल, लोहा आदि कच्चेमाल इस कोटि में आते हैं जो हमें सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होते हैं। हम इनका जितना अधिक उपयोग करते हैं, हमारा विकास तो उतना अधिक हो जाता है किंतु दूसरी ओर से हम उतने ही निर्धन भी हो जाते हैं क्योंकि हमारी वह जमापूंजी खर्च तो होती है
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