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________________ पर्यावरण १२७ किंतु पैदा नहीं होती। उद्योगीकरण तथा मशीन के आगमन से पूर्व हम ऐसे संसाधनों का प्रयोग बहुत कम करते थे जो सीमित हैं। ईंधन के रूप में हम लकड़ी का प्रयोग ही अधिक करते थे जो वृक्षों से प्राप्त होती थी । वृक्ष कटते थे और लग भी जाते थे। आज जिस खदान में कोयला समाप्त हो जाता है अथवा जिस कुए में पेट्रोल समाप्त हो जाता है वहां फिर दुबारा इन संसाधनों के प्राप्त होने की आशा नहीं की जा सकती । उद्योगीकरण से हमारी पृथ्वी जहां एक ओर निर्धन हो रही है, वहां दूसरी ओर धूमिल भी हो रही है। चाहे नदियां हों चाहे वायुमण्डल, इन्हें दूषित करने का मुख्य दायित्व उद्योगों पर ही है । यह सब होने पर भी हम उद्योगों के बढ़ते कदमों का स्वागत ही करते हैं क्योंकि उनसे हमारी आवश्यकता की सुख-सुविधायें प्राप्त होती हैं। विकास की आत्मघाती अवधारणा उद्योगपतियों को उद्योगों से जितनी सम्पन्नता प्राप्त होती है किसी और माध्यम से उतनी सम्पन्नता प्राप्त नहीं हो सकती । यह सम्पन्नता उद्योगपतियों की व्यक्तिगत ही नहीं है, राष्ट्रीय सम्पन्नता की भी सूचक है । जिस राष्ट्र में जितने अधिक उद्योग हैं, वह राष्ट्र उतना अधिक सम्पन्न है । यह भी कहा जाता है कि उद्योगों से लोगों को रोजगार मिलता है । उद्योग के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा एक स्वस्थ प्रवृत्ति मानी जाती है । उद्योगों के कारण निकलने वाले धुंए से काला होता आकाश और प्रकृति के दोहन से खोखली होती पृथ्वी सबको दिखती है फिर भी हम लाचारी में उद्योगों को प्रोत्साहित करते ही रहते हैं क्योंकि हमें विकास की दौड़ में सबसे आगे रहना है। हम यह तो चिन्ता करते रहते हैं कि पर्यावरण का प्रदूषण कैसे कम करें किंतु जिन कारणों से प्रदूषण हो रहा है उन कारणों को दूर करने की बात हम इसलिए नहीं सोच सकते कि वे हमारे जीवन के अंग ही नहीं बन गये हैं, अपितु हमारी सम्पन्नता के प्रतीक भी बन गये हैं। आज जिस राष्ट्र में प्रति व्यक्ति पेट्रोल की खपत जितनी ज्यादा है, वह राष्ट्र उतना ही अधिक सम्पन्न / विकसित माना जाता है। उद्योगीकरण पर टिका हुआ यह ढांचा इस आधार पर खड़ा है कि उद्योगों द्वारा अभाव को मिटाकर सम्पन्नता को लाया जा सकता है और ज्यों-ज्यों सम्पन्नता बढ़ेगी त्यों-त्यों सुख बढ़ेगा। पिछले पचास वर्षों में निश्चय ही सम्पन्नता बढ़ी है, पर क्या सचमुच सुख भी बढ़ गया - यह एक विचारणीय मुद्दा है। सम्पन्नता बढ़ने को नापा जा सकता है और सुख को नापा नहीं जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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