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पर्यावरण
हमारे अन्दर एक जगत् है किंतु हमारे बाहर भी एक जगत् है। अन्तर्जगत् की व्याख्या अध्यात्म करता है, बाहरी संसार की व्याख्या अधिभूत करता है। अध्यात्म और अधिभूत का पारस्परिक संबंध अधिदैव बताता है। जैसे अध्यात्म अधिभूत के बिना निराकार है वैसे अधिभूत अध्यात्म के बिना निराधार है। हम अधिभूत की चर्चा अध्यात्म को साथ लेकर न करें तो क्या-क्या अनिष्ट परिणाम निकलते हैं-इस पर दृष्टिपात करने से पहले अधिभूत की प्रकृति को समझ लें। जैन परम्परा इस बात को दूसरे शब्दों में कहती है। वहां अधिभूत अजीव है, अध्यात्म जीव है, दोनों का संबंध जोड़ने वाला कर्म है।
अधिभूत कहो या अजीव कहो । न वैदिक परम्परा यह स्वीकार करती है न जैन परम्परा कि पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु निष्प्राण है। वैदिक परम्परा में देव हैं तो जैन परम्परा में ये चारों स्थावर जीव हैं। किंतु इस विषय में ये दोनों परम्परायें सहमत हैं कि ये चेतना से युक्त हैं। एक आरोप है-और यह आरोप सर्वथा निराधार भी नहीं है-कि भारतीय दृष्टि में.सामाजिकता का अभाव है। किंतु हमें यह भी याद रखना पड़ेगा कि सामाजिकता में जहां केवल मनुष्य का समावेश होता है वहां भारतीय दृष्टि पशुजगत् वनस्पतिजगत् के साथ-साथ प्रकृति के उस रूप को भी नहीं भूलती है जिसे पश्चिम जड समझकर भोग्यकोटि में मानता है और मनुष्य को भोक्ता मानता है। प्रकृति और मानव __भारतीय दृष्टि में प्रकृति मनुष्य की भोग्य नहीं है अपितु माँ है। मनुष्य की सम्पूर्ण भौतिक इच्छाएं प्रकृति ही पूरी करती है। जिसे हम भौतिक विकास कहते हैं उसका पूरा आधार प्रकृति है। प्रकृति मनुष्य की एक मात्र पूंजी है। हम अपने चारों ओर दृष्टिपात करें तो पता चलेगा कि हमारे उपयोग में आने वाली एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका कच्चामाल-रॉ मेटिरियल-प्रकृति से
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