________________
११५
काम और संयम
मनुष्य के चिन्तन के केन्द्र में भोग रहता है। यह स्थिति पहले भी थी किंतु आज यह अन्तर आया है कि भोग की प्रशंसा की जाने लगी है, त्याग की निंदा होती है। इसीलिए हम वर्तमान युग को भोगवादी युग कहते हैं। अभी हमें यह पता लगा है कि अति भोग भी रोग उत्पन्न करते हैं। भोग सर्वथा मिट जाये यह नहीं हो सकता किंतु यह अवश्य हो सकता है कि भोग के साथ त्याग भी चले।
भोग न भोग पाना लाचारी हो तो यह त्याग नहीं है। त्याग का अर्थ है भोग का संकल्प टूटे। भोग के संकल्प वाला व्यक्ति ध्यान को भी भोग का साधन बना लेता है। योग का संकल्प वाला व्यक्ति भोग में भी योग साध लेता है। भोग के संकल्प छूटने के साथ मन को भी निःशल्य होना चाहिए। मन में भोग की लालसा न हो। तीसरा सूत्र है परम-आत्मा के साथ तादात्म्य। बाहरी शुद्धि के साथ भाव-शुद्धि भी आवश्यक है। योग और तारुण्य
राजयोग का प्रारम्भ बिंदु वैराग्य है। हठयोग का प्रारम्भ बिंदु आसन है। हठयोग की पद्धति में शरीर मुख्य है। राजयोग की पद्धति में आत्मा मुख्य है। योग का अर्थ है मृदुता। शरीर में लचीलापन हो और बुद्धि में ग्रहणशीलता। यह यौवन का प्रथम लक्षण है। तनाव मृदुता को समाप्त करता है। बुढ़ापे को लाता है। सत्य के प्रति उत्साह तारुण्य का दूसरा लक्षण है। इस उत्साह के कारण ही जीव निगोद से मनुष्य तक की विकास यात्रा करता है। तारुण्य का तीसरा लक्षण है वर्तमान में रहना। बूढ़ा आदमी अतीत में जीता है। जो अतीत में जीएगा वो शीघ्र बूढ़ा हो जायेगा । तारुण्य का एक अन्य चिन्ह है परिस्थिति से विचलित न होना। साधना सदा तरुण बने रहने का सूत्र देती है।
*
*
*
*
*
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org