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महाप्रज्ञ-दर्शन आयुष्य, पांच इन्द्रियां, मन, वाणी और शरीर। कर्म के कारण होने वाले स्पन्दनों में मोह के स्पन्दन सबसे अधिक हैं। इन सभी प्रकार के स्पन्दनों के साथ जब मन जुड़ता है तो सुख-दुःख उत्पन्न होता है। स्पन्दन के साथ यदि मन न जुड़े तो सुख-दुःख नहीं होता।
चिंतन और स्मृति से भी स्पन्दन पैदा होता है। मंत्र स्पंदन के द्वारा ही इष्ट फल देता है।
पक्ष के स्पन्दनों को प्रतिपक्ष के स्पन्दनों के द्वारा संयमित किया जा सकता है। क्रोध का प्रतिपक्षी है उपशम । मान का मृदुता, माया का ऋजुता, लोभ का संतोष । पहला कदम है स्पन्दनों की प्रेक्षा। ऋण स्पन्दन कहें, विषय स्पन्दन कहें या काम स्पन्दन कहें तीनों एक ही बात है। इसके विपरीत है-घन स्पन्दन, आत्म स्पन्दन अथवा ऊर्ध्वगामी स्पन्दन। अधोगामी ऊर्जा यदि ऊर्ध्वगामी हो जाये तो आध्यात्मिक सुख की अनुभूति होती है। गुणस्थान की दृष्टि से नाभि का स्थान चतुर्थ गुणस्थान है जहां से ऊपर चढ़ते हुए सहस्रार तक पहुंचना होता है। इस क्रिया में श्रद्धा आवश्यक है। श्रद्धा से उत्सुकता समाप्त होती है। तब व्यक्ति अन्तर्मुखी बनता है। जैसे-जैसे आध्यात्मिक स्पन्दन तीव्र होते हैं, पौद्गलिक स्पन्दनों का आकर्षण कम होता जाता है। इन्द्रियों के पार
धर्म का आदि बिंदु है-इन्द्रियातीत ज्ञान। इन्द्रियातीत ज्ञान के बिना आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक तथा कर्म की कोई स्थिति नहीं। इन्द्रियातीत ज्ञान आगम का विषय है। वस्तुतः परलोक है या नहीं यह प्रमाण का विषय नहीं है। अधिकतर लोग इन्द्रियों के जगत् में जीते हैं। इन्द्रियांतीत की चेतना में जीने वाले को अकेले चलना पड़ता है। अतीन्द्रिय ज्ञान का अर्थ है-इन्द्रियों की आसक्ति से ऊपर उठना । जो इन्द्रियातीत चेतना में जीता है उसकी दृष्टि सम्यक है।
इन्द्रियां हमारे ज्ञान का कारण है। वे हमारी शत्रु नहीं। लेकिन जब उनमें राग-द्वेष प्रविष्ट हो जाता है तो वे अनिष्टकारी हो जाती हैं। मनुष्य के चार घटक हैं-आत्मा, बुद्धि, मन और शरीर । इन्द्रियां इन चारों को बाहर के जगत् से जोड़ती हैं। यदि इन चारों घटकों को स्वस्थ रखना हो तो इन्द्रिय-संयम आवश्यक है। सामान्य जीवन के लिए भी इन्द्रिय संयम आवश्यक है। आध्यात्मिक चेतना के लिए अतिरिक्त इन्द्रिय संयम चाहिए। इन्द्रियों के अपने विषय हैं-शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श। इनमें कोई दोष नहीं है। किंतु यदि कषाय हो तो यही विषय-विकार उत्पन्न कर देते हैं।
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