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________________ १०२ महाप्रज्ञ-दर्शन चाहे वह राजनैतिक क्षेत्र में हो या धार्मिक क्षेत्र में। किसको व्यापारी कहें और किसको न कहें? लगता है संसार का प्रत्येक वर्ग व्यापारी है। __पहले लड़ाइयां होती थीं भूमि के लिए और आज संघर्ष चल रहा है आर्थिक प्रभुत्व के लिए, आर्थिक साम्राज्य को बढ़ाने के लिए। सूत्र है-आवश्यकता बढ़ाएं, कार्य क्षमता को बढ़ाएं और उत्पादन को बढ़ाएं। - एक ओर कहा जा रहा है-आवश्यकताएं बढ़ाओ। दूसरी ओर कहा जा रहा है-परिवार नियोजन करो। कैसा विरोधाभास है। एक ओर आवश्यकता को बढ़ाओ और दूसरी ओर जनसंख्या को घटाओ। इसका सीधा-सा अर्थ है-चेतना को घटाओ और पदार्थ को बढ़ाओ। मनुष्य की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात कम है, यंत्रों की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात अधिक है। परिणाम है कि मजदूर कम होते जा रहे हैं और यंत्र उसका स्थान ग्रहण कर रहे हैं। बेकारी बढ़ रही है। जड की क्षमता बढ़ाओ और मनुष्य की क्षमता को कम करो। जब यंत्रों की जड़ की क्षमता बढ़ती है, मूल्य बढ़ता है, चेतना की क्षमता कम होती है-मूल्य कम होता है, तब शोषण को बल मिलता है। शोषण आज की आर्थिक व्यवस्था और राजनैतिक प्रणाली का शब्द है। अध्यात्म की भाषा में उसका अर्थ है क्रूरता। दोनों शब्द एक ही हैं। शोषण नया शब्द है और आज की अर्थ व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है, आज की राजनैतिक क्रान्ति के साथ जुड़ा हुआ है। क्रूरता पुराना शब्द है। जैसे-जैसे क्रूरता बढ़ती है शोषण को बल मिलता है। जिन-जिन में अध्यात्म जागा है, उनमें संवेदनशीलता अवश्य जागी है। उनमें करुणा का प्रवाह फूटा है और वे समता से ओत-प्रोत हुए हैं। वह व्यक्ति फिर किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता, धोखा नहीं दे सकता, किसी की भूमि या सम्पत्ति नहीं हड़प सकता, अनैतिकता नहीं कर सकता आदि-आदि। ध्यान का मूल प्रयोजन है-चेतना का रूपान्तरण, वृत्तियों का परिष्कार । इनमें पहला परिष्कार है लोभ का, स्वार्थ का। इन्द्रिय-तृप्ति, मन की तुष्टि, सुविधावादी दृष्टिकोण और अधिकार की मौलिक मनोवृत्ति का परिष्कार किए बिना आर्थिक विकास सुखद नहीं हो सकता, आर्थिक असदाचार को मिटाया नहीं जा सकता, शोषण की इति नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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