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महाप्रज्ञ उवाच हो सकती और स्वस्थ समाज की रचना नहीं हो सकती।
आदमी शार्टकट से जाना चाहता है। आज राजपथ इतने संकरे हो गये हैं कि उसे पगडंडी का चुनाव करना पड़ रहा है।
पुरानी पीढ़ी के लोग अनपढ़ थे, सहन करना जानते थे। किंतु आज लोगों की समझ बहुत बढ़ी है, इसलिए उनमें संवेदनशीलता भी बढ़ी है। संवेदनशीलता के कारण आपसी संबंधों में संघर्ष के स्फुलिंग उछलते रहते हैं। - आदमी तराजू के पल्ले में अपने को बिठाये, दूसरे पल्ले में सामने वाले को बिठाये और दोनों को समदृष्टि से तौले, आत्मतुला का अन्वेषण करे।
समय-समय पर हिंसा ने जितना अपना रौद्र रूप दिखाया है, अहिंसा उतना सौम्य रूप नहीं दिखा पाई है।
आज सबसे बड़ा संकट है आस्था का। श्रद्धा इतनी विचलित है कि आदमी कहीं भी टिक नहीं पा रहा है।
प्रत्येक प्रवृत्ति की कसौटी समाज में होती है, मूल्यांकन समाज में होता है।
सामाजिक जीवन में संघर्ष अनिवार्य है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सामाजिक जीवन जिएं और संघर्ष न हो।
अधिकांश कलह इसलिए होते हैं कि अहंकार को चोट पहुंचती है। पारिवारिक झगड़ों, कर्मचारियों के झगड़ों, अपने नौकरों के झगड़ों में मुख्य कारण मिलेगा-दूसरों के अहंकार को चोट पहुंचाना। आदमी को इस बात में बहुत रस है। जितना रस रसगुल्ला खाने में नहीं है उतना रस दूसरों के अहं को चोट पहुंचाने में है।
यह एक मान्य तथ्य है कि ज्ञान और आचरण की दूरी को पूर्णतः मिटाया नहीं जा सकता, किंतु कम किया जा सकता है। राजनीति के क्षेत्र में यह दूरी चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि वह क्षेत्र कूटनीति का है और उसकी बुनियाद इसी दूरी पर आधृत है। सामाजिक क्षेत्र में यह दूरी समस्याएं पैदा करती हैं। वहां भी वह चलती है, पलती है। यह आश्चर्य की बात नहीं है। किंतु आश्चर्य तब होता है जब आत्मा और चैतन्य के प्रति जागृत व्यक्ति भी उस दूरी को पालता है, बढ़ाता है।
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