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________________ महाप्रज्ञ उवाच १०१ और अपना-अपना मूल्य है। इनसे निरपेक्ष होकर हम व्यक्ति और समाज व्यवस्था के परिवर्तन की बात नहीं सोच सकते । अहं का शरीर धर्म का परिधान पहनकर यह सब कुछ कर रहा है । वह नये समाज की रचना में सबसे बड़ा विघ्न बन रहा है। जरूरत है किसी नये विनायक की, जो इस विघ्न का विनाश कर डाले। वह विनायक हो सकता है - अनेकान्त । जातिवाद अभिजात वर्ग के अहंकार की उपज है। इसे धर्म का कवच पहनाया गया है। इस अपेक्षा दृष्टि से देखने पर जातिवाद का जहर अपने आप मृदुता की सुधा में बदल जाता है । मार्क्सवाद को गांधीवाद की चुनौति दी जा सकती है और गांधीवाद को मार्क्सवाद की चुनौति दी जा सकती है। किंतु गांधीवाद और मार्क्सवाद के सत्यांशों को समन्वय की दृष्टि से नहीं देखा जा सका, इसलिए दोनों अच्छाइयां एक-दूसरे के प्रतिपक्ष में खड़ी हैं। केनिज, मार्शल आदि के अर्थशास्त्र के अपने कुटीर हैं तो गांधी, शूमेखर आदि के अर्थशास्त्र अपनी जगह खड़े हैं। एक-दूसरे पर कटाक्ष किया जा रहा है, किंतु दोनों को मिलाकर एक नये अर्थशास्त्र का निर्माण नहीं किया जा रहा है । ऊपर से अनुशासन करने की आवश्यकता और उसके क्षेत्र को जितना अधिक से अधिक संभव हो, संकुचित और सीमाबद्ध किया जाये तथा आत्मानुशासन के क्षेत्र का उत्तरोत्तर विस्तार किया जाये । इस ख़तरे से बचने का मुझे केवल एक ही उपाय मिला कि जहां तक व्यावहारिक हो सके, जनता के लिए राज्य के बिना काम चलाना और अपनी व्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में अपने आप कर लेना संभव बनाया जाये । समाजवाद की भाषा में बोलना हो तो मैं इस प्रकार कहूंगा कि राज्य सत्ता का इस्तेमाल करके समाजवाद कायम करने की बजाय जनता के स्वैच्छिक प्रयत्नों द्वारा समाजवादी जीवन के स्वरूपों की सृष्टि और विकास किया जाये । जहां मानवता का प्रश्न है, वहां समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को अविभक्त रूप में देखना होता है। पहले समाज व्यवस्था अच्छी हो अथवा राज्य व्यवस्था ? पहले राज्य व्यवस्था अच्छी हो अथवा अर्थव्यवस्था ? इस प्रश्न का उत्तर पौर्वापर्य में नहीं खोजा जा सकता । आज प्रत्येक व्यक्ति व्यापारी है । उसका दिमाग व्यवसायिक है, फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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