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________________ १०० महाप्रज्ञ-दर्शन चेतना का रूपान्तरण नहीं हुआ तो क्या होगा? आईंस्टीन जैसे धुरीण वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे-केवल ज्ञेय की शोध में लगा हुआ विज्ञान समस्या का समाधान नहीं है। ज्ञाता की प्रकृति और प्रवृत्ति को जानकर ही हम कुछ नया सृजन कर सकते हैं। आपराधिक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए दण्ड की उपयोगिता मान भी ली जाए, फिर भी समाज व्यवस्था को बदलने का वह आधार नहीं बनता। उसका आधार बन सकता है-सम्यक् दर्शन, दृष्टिकोण का परिवर्तन । . सामाजिक मूल्यों को बदलने के लिए नये सामाजिक मूल्यों को मस्तिष्क में प्ररूढ़ करना परिवर्तन की अनिवार्य प्रक्रिया है। परिवर्तन के बीज की उपेक्षा कर सीधे फल तोड़ने की बात कभी न सोचें। संवेदनशीलता या करुणा के अंकुर गरीबी की उर्वरा में पनपते हैं। उनके लिए अमीरी एक बंजर भूमि है। जैसे लाभ होता है, वैसे ही लोभ बढ़ता है, आसक्ति बढ़ती है। जैसे लोभ बढ़ता है, वैसे ही क्रूरता बढ़ती है। गरीबी एक विकल्प है। अमीरी दूसरा विकल्प है। तीसरा विकल्प है गरीबी+अमीरी । इस तीसरे विकल्प में जीवन यापन के साधनों का अभाव नहीं होता और धन के प्रति आसक्ति या मूर्छा नहीं होती। साधन का भाव और आसक्ति का अभाव-ये दोनों मिलकर तीसरे विकल्प का निर्माण करते हैं। केवल मनोवृत्ति को बदलना भी एकान्तवादी दृष्टिकोण है। केवल व्यवस्था को बदलना भी एकान्तवादी दृष्टिकोण है। अनेकान्तवादी का दृष्टिकोण यह है-मनोवृत्ति और व्यवस्था-दोनों का युगपत् परिवर्तन होना चाहिए। यह युगपत्वाद अनेकान्त का प्राणतत्व है। कोरा चरखा चले और चरखे के साथ जुड़ी हुई चेतना समाप्त हो जाये तो वैज्ञानिक उपकरणों के सामने चरखा अपना मूल्य स्थापित नहीं कर सकता। यह प्रश्न पूछा जाता है कि इतने धर्मशास्त्रों और धर्मगुरुओं के होते हुए भी समाज क्यों नहीं बदला ? यह प्रश्न नहीं पूछा जाता कि दण्ड की इतनी विधियों के होते हुए भी समाज क्यों नहीं बदला ? यदि दण्ड समाज के लिए अंकुश है तो धर्म भी कम अंकुश नहीं है। दण्ड के भय से बहुसंख्यक लोग अपराध से बचे हुए हैं। उसकी सामानान्तर उक्ति यह है कि धर्म की धारणा से भी बहुसंख्यक लोग अपराध से बचे हुए हैं। हमें इस बिंदु पर चिन्तन करना चाहिए कि दण्ड नहीं होता तो समाज कैसा होता । धर्म की धारणा नहीं होती तो समाज कैसा होता। धर्म और दण्डनीति-दोनों का अपना-अपना क्षेत्र है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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