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________________ ६६ महाप्रज्ञ उवाच मिलना चाहिए। न जाने वह कितना भीतर है। हम कैसे इन अध्यात्म रहस्यों को समझने का प्रयत्न करें? जब यह प्रश्न क्रियान्वित होगा, सारी धारणाएं बदल जायेंगी। . इन्द्रिय तृप्ति, मन की तुष्टि, सुविधावादी दृष्टिकोण और अधिकार की मौलिक मनोवृत्ति का परिष्कार किए बिना अहिंसक समाज अथवा शोषण विहीन समाज का सपना कोरा सपना ही रहेगा, वह साकार नहीं हो पायेगा। __ शक्ति अव्यक्त रहती है-अथवा अव्यक्त में शक्ति निहित है। उसकी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है ज्योति । यह दीप, मणि, विद्युत् अथवा सूर्य के बिम्ब से निःसृत होने वाली ज्योति नहीं है। यह है अन्तर् में उद्भासित होने वाली ज्योति। उस ज्योति की प्रतिबंधक शक्ति निशा नहीं है, निशा में होने वाला तम भी नहीं है। उसके लिए दिन और रात का कोई भेद नहीं है। उस ज्योति का आवरक है-मोह, मूर्छा या मूढ़ता। ___ वैदिक ऋषि ने “सत्यमेव जयते” मंत्र का पाठ किया था-मोह से निर्मोह की भूमिका तक पहुंचने के लिए। उसके शब्दोचार मात्र से वहां नहीं पहुंचा जा सकता जहां पहुंचना है। आवश्यक है-मंत्र के अर्थ के साथ तादात्म्य । अर्थ के विषय में एक सापेक्ष दृष्टिकोण का निर्माण आवश्यक है। धर्म ग्रन्थों में अर्थ के जितने दोष बतलाये गये हैं, वे सत्यांश से परे नहीं हैं। अर्थशास्त्र के विकास के लिए अर्थ के मूल्य का प्रतिपादन किया गया है। उसमें भी सत्यांश है। दोनों को मिलाकर एक सापेक्ष सत्य की अवधारणा निर्मित करनी है। उसका नाम होगा-संतुलित अर्थशास्त्र। सत्ता की पीठ पर बैठे हुए लोग विज्ञान का अधिकतम उपयोग अपनी सुरक्षा और प्रभुत्व की संवृद्धि के लिए करना चाहते हैं। उद्योगपति विज्ञान का उपयोग अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए करना चाहता है। सत्य की शोध का क्षेत्र सत्यान्वेषी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों से शून्य जैसा हो रहा है। इस स्थिति में समाज व्यवस्था को बदलने का स्वप्न क्या दिवास्वप्न नहीं है? इस ध्रुव सत्य की घोषणा की जा सकती है-अतीन्द्रिय चेतना की पृष्ठभूमि का निर्माण किए बिना समाजवाद का अवतरण नहीं किया जा सकता। चेतना की उपेक्षा कर केवल उत्पादन और वितरण की समानता के आधार पर समाज की व्यवस्था को नहीं बदला जा सकता। समानता की व्यवस्था करने वाले स्वयं विषमता उत्पन्न करने लग जाते हैं। यदि उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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