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सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल
४.स्थिरीकरण ५.वात्सल्य।
१. श्रम-इस मूल्य का महत्त्व इतना अधिक है कि जैन परम्परा का प्राचीन नाम ही "श्रमण” है। आज का युग श्रमिक वर्ग के आन्दोलनों का युग है। श्रम के साथ स्वावलम्बन गुण को-जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे-मिला लें तो सर्वहारा और बुजुओ का वर्गभेद समाप्त हो जाता है। जैन साधु के जीवन में हम आज भी श्रम की महत्ता पूर्णतः प्रतिष्ठित पाते हैं, किंतु श्रमणोपासक भी श्रम को महत्त्व दे सकें तो समाज में ऊंच-नीच का भेद मिटाने में बहुत सहायता मिले । आदिम समाज में श्रम सहज ही प्रतिष्ठित था किंतु उद्योगीकरण तथा यंत्रीकरण ने यह संभव बना दिया कि एक वर्ग के श्रम का फल ऐसा वर्ग भोगे जो बिलकुल श्रम न करे। इससे एक रुग्ण समाज उत्पन्न हो गया।
. श्रमण का प्राकृत रूप समण है। इस शब्द का संबंध समता से भी है। श्रम समता स्थापित करता है। किंतु यह ध्यान रहे कि जैन आचार पर आधारित श्रम भौतिक समृद्धि के पीछे एक ऐसे पागलपन को जन्म न दे कि मनुष्य भी यन्त्रों के साथ एक यन्त्र ही बन जाये जिसका उद्देश्य केवल उत्पादन हो। समिति-विवेकपूर्ण प्रवृत्ति के साथ गुप्ति-मन, वचन तथा शरीर का विश्राम-भी आवश्यक है।
२. स्वावलम्बन-भगवान महावीर स्वामी का स्वावलम्बन इस कोटि का था कि उन्होंने भगवान का भी आश्रय लेना उचित न समझकर यह घोषणा कर दी कि हे पुरुष! तू अपना मित्र स्वयं है, बाहर मित्रों की खोज क्यों करता है। आज इस देश में हमारे परावलम्बन की स्थिति यह बन गई है कि हम अपने देश का काम काज भी अपनी भाषा में नहीं चला सकते । हममें हीनता की भावना इस बुरी तरह से घुसी है कि हमारे खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार में जो कुछ भी "देशी" है उसे चुन-चुनकर निकाल फेंक रहे हैं जिससे हम अपनी ही भूमि पर अपनी ही मिट्टी की गंध को त्याज्य मानने लगे हैं। उसके परिणामस्वरूप वह आधुनिक समस्या उत्पन्न हो गयी, जिसे विचारक अलगाव या “एलिनियेशन” की समस्या कहते हैं।
३. वैयावृत्य-समाज में परस्पर सहयोग आवश्यक है। संघ में रहते हुए कोई मुनि भी किसी ग्लानमुनि की सेवा से इन्कार नहीं कर सकता। यह उसका परम कर्तव्य है। हाँ, कोई जिनकल्पी साधु संघ से पृथक रहकर साधना करे तो वह इस दायित्व से मुक्त हो सकता है।
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