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महाप्रज्ञ-दर्शन उपेक्षित हो गया कि इन दर्शनों ने हमें यह तो बताया कि क्या नहीं करना चाहिए और यह निषेध की सूची समाज के लिए उपयोगी भी है; किंतु समाज के निर्माण और विकास के लिए क्या करना चाहिए उसकी कोई गंभीर सूची हमें प्राप्त नहीं होती। परिणाम यह हुआ कि विचारकों ने दर्शनों की विशेषकर जैन दर्शन को निवृत्ति मूलक मानकर सामाजिक दृष्टि से विशेष उपयोगी नहीं माना।
इस संदर्भ में जैन चिंतन यह है कि सामाजिक व्यवस्था देश काल के अनुसार बदलती रहती है इसलिए कोई स्थायी सामाजिक व्यवस्था नहीं दी जा सकती। देश-काल के अनुसार वे सभी सामाजिक व्यवस्थायें ग्राह्य हैं जो हमारी धार्मिक मान्यताओं के प्रतिकूल न हो और जिनसे हमारे व्रतों में कोई बाधा न आती हो
यत्र न सम्यक्त्वहानिर्यत्र न व्रतदूषणम्।
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।। निवृत्तिपरक धर्म शोधक है। समाज में फैली बुराइयों को दूर करने में उससे बहुत सहायता मिल सकती है, क्योंकि शोधन का कार्य व्यक्ति केन्द्रित है। शुद्धि व्यक्ति की की जाती है, समाज की नहीं। व्यक्ति के शुद्ध हो जाने पर समाज स्वयं शुद्ध हो जाता है।
किंतु शुद्धि ही पर्याप्त नहीं है। पोषण और निर्माण भी चाहिए। आधुनिक भाषा में कहें तो विकास भी करना है। विकास के लिए केवल व्यक्तिगत प्रयत्न पर्याप्त नहीं है, सामूहिक प्रयत्न भी चाहिए और जहां सामूहिक प्रयत्न का प्रश्न आता है वहां व्यवस्था का प्रश्न आता है। श्रमण परम्परा में साधु संघ के लिए भी व्यवस्था के नियम बनाने पड़े, क्योंकि संघ सामूहिक विकास का मंच था। आचार्य का पद, उपाध्याय का पद, गणधर- ये सब व्यवस्था के लिए बनाये गये पद हैं। विस्तृत नियमों का निर्माण किया गया जिनके आधीन साधु संघ का संचालन होना चाहिए। श्रावक संघ के संबंध में ऐसे नियमों का और व्यवस्थाओं का प्रायः अभाव ही दिखता है फिर भी कुछ ऐसे मूल्य एवं मानदण्ड हैं जिनका विस्तार करके हम उन्हें गृहस्थों पर भी लागू कर सकते हैं और वे समाज व्यवस्था का आधार बन सकते हैं। इनमें पांच मूल्य मुख्य हैं
१.श्रम २.स्वावलम्बन ३.वैयावृत्य
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