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महाप्रज्ञ-दर्शन जैन समाज में सेवाकार्य के प्रति एक चेतना इधर विशेष रूप से जागी है। वस्तुतः सम्राट अशोक के समय में संसार में सर्वप्रथम पशुओं का अस्पताल खोलने का श्रेय इस देश को प्राप्त है किंतु आधुनिक काल में यह सेवा भाव हमें परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में ईसाई मिशनरियों से प्राप्त हुआ है। जैन आचार के आधार पर सेवा कार्य के संबंध में कुछ आवश्यक निर्देश नीति-शास्त्री भी प्राप्त कर सकता है।
सेवा में अहंकार का भाव व्यर्थ भी है और हानिकारक भी है। जब कोई पदार्थ हमारा है ही नहीं तो किसी को कुछ देकर हम दान देने का अभिमान करें यह सर्वथा मिथ्याभाव का परिणाम है। दान आसक्ति की निवृत्ति न करके मान-कषाय का पोषण करे तो ऐसा दान गीता के शब्दों में तामसिक दान ही माना जायेगा। जैन परिभाषा में ऐसा दान बंधन का कारण है। दान में दाता ग्रहीता के प्रति अवमानना की भावना रखे यह साक्षात् हिंसा है। दोनों में सर्वोत्तम दान वह है जो ग्रहीता को स्वावलम्बी बनाये परावलम्बी नहीं, श्रमशील बनाये निकम्मा नहीं क्योंकि श्रम और स्वावलम्बन के विरोधी दान नैतिक नहीं कहला सकते । अनुचित उपायों से अर्जित धन के कुछ अंश को दान देकर हम “अशर्फियां लुटें और कोयलों पर मोहर” वाली कहावत ही चरितार्थ करते हैं।
४. स्थिरीकरण-इसके मूल अर्थ के संबंध में हम ऊपर कह चुके हैं। वैयावत्य सेवा है तो स्थिरीकरण सहयोग। अनैतिक मार्ग पर चलने वालों का पारस्परिक सहयोग प्रसिद्ध है किंतु नैतिकता पर चलने वालों को जिन संकटों का सामना करना पड़ता है वे संकट केवल भौतिक ही नहीं होते, आस्था को भी हिला देते हैं। ऐसे अवसरों पर एक दूसरे की आस्था को सक्रिय सहयोग द्वारा स्थिर न किया जाये तो सम्भवतः कभी नैतिक समाज का निर्माण ही न हो सके।
५. वात्सल्य-नैतिकता का अर्थ नीरसता नहीं है। नैतिकता का आधार यह है कि हम सब एक हैं। एक की हानि दूसरे की हानि है तथा एक का लाभ दूसरे का लाभ है। ऐसी स्थिति जीवन में एक रस उत्पन्न करती है जिसे हम अपनापन कहते हैं। यह अपनापन नैतिक जीवन के भार को सह्य ही नहीं, आनन्दमय बना देता है। आवश्यकता नई व्यवस्था की
सामूहिक जीवन की विविध प्रणालियों में चार प्रमुख प्रणालियों का संक्षिप्त विवरण हमने दिया और साथ ही उन प्रणालियों के गुण-दोषों पर भी
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