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मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या
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अनुयोगद्वार, भगवती आदि जैन आगम साहित्य में कई स्थानों पर तच्चित्ते, तन्मणे, तल्लेशे, तदण्झवसिये शब्दों का प्रयोग मिलता है। ये उत्तरोत्तर अवस्थाओं के सूचक हैं। भगवती में लिखा है कि गर्भस्थ जीव जब मरता है तब यदि उसने देवगति का बन्ध किया है तो उसके चित्त, मन, लेश्या और अध्यवसाय अक्लिष्ट होंगे और यदि नरक गति का कर्मबन्ध किया है तो चित्त, मन, लेश्या और अध्यवसाय क्लिष्ट होंगे।
जैन दर्शन में पांच आश्रवों की जो चर्चा की गई है उसमें योग आश्रव प्रवृत्यात्मक है। इससे चंचलता पैदा होती है। योग आश्रव स्वयं शुभ-अशुभ होने का घटक नहीं। इसके साथ मुख्य भूमिका अविरति और कषाय आश्रव की रहती है। कषाय से लेकर क्रियातंत्र की यात्रा में लेश्या एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
आत्मविशुद्धि के क्षेत्र में पौद्गलिक लेश्या और भावलेश्या दोनों की शुद्धता अत्यावश्यक है। कायिक प्रवृत्ति द्वारा जो भी पुद्गल ग्रहण करेंगे, यदि वे शुभ हैं तो कर्म, विचार, भाव, लेश्या, अध्यवसाय सभी शुभता का निर्माण करेंगे और यदि अशुभ पुद्गलों का ग्रहण होता है तो ठीक इसके विपरीत मनोदशा का निर्माण होगा; क्योंकि द्रव्यकर्म का भावकर्म पर और भावकर्म का द्रव्यकर्म पर प्रभाव पड़ता है।
सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म तक की यह प्रक्रिया एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण की कार्यकारण मीमांसा करती है। यदि अध्यवसाय शुद्ध है तो योग की प्रवृत्ति भी शुद्ध होगी और योग की प्रवृत्ति शुद्ध है तो अध्यवसाय भी शुद्ध होंगे। एक दूसरे से जुड़ा है सूक्ष्म स्थूल शरीर का गहरा संबंध। इस संबंध की मुख्य संवाहिका बनती है लेश्या जो व्यक्ति के चरित्र को शुभ-अशुभ बनाने में कारण बनती है। अचेतन मन के स्तर पर कर्मबन्ध __ अचेतन मन की सत्ता को व्याख्यायित करने के लिए बाह्य और भीतरी निमित्तों को जान लेना भी आवश्यक है। बहुत बार बिना निमित्तों के आचरण और व्यवहार बदलते देखा गया है। स्थानांग सूत्र में दिए गए क्रोध के चार प्रकार इस तथ्य को प्रकाशित करते हैं।'
क्रोध के चार प्रकार हैं - 1. आत्मप्रतिष्ठित 2. परप्रतिष्ठित, 3. उभयप्रतिष्ठित, 4. अप्रतिष्ठित। प्रथम तीन विकल्पों को चेतन के स्तर तक समझा जा सकता है पर अप्रतिष्ठित क्रोध का रहस्य उस स्तर पर आत्मसात् नहीं होता। हम कई बार ऐसा देखते हैं कि न कोई अपना दोष है, न दूसरों का दोष है और न ही दोनों का, फिर भी वह क्रुद्ध हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि अतीत के संस्कारों का एक बड़ा खजाना उसके साथ है। अतीत के इस खजाने को अचेतन मन के नाम से प्रस्तुति देने में लेश्या सिद्धान्त को कोई कठिनाई नहीं है।
1. भगवती 1/7 पृ. 254/57;
2. ठाणं 4/76
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