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________________ 74 लेश्या और मनोविज्ञान अध्यवसाय कहलाता है । अध्यवसायों की शुद्धता और अशुद्धता का मूल कषायों की मन्दता और तीव्रता है । अध्यवसाय जब लेश्या तक पहुंचते हैं तब लेश्या उन्हें अच्छे-बुरे सांचे में ढालकर व्यवहार में प्रकट करती है। __ अध्यवसाय के असंख्य स्पन्दनों से एक भावधारा बनती है । भावधारा के शुद्ध-अशुद्ध/ शुभ-अशुभ दो रूप हैं । मोह कर्म का उदय अशुद्धता का हेतु है और मोहकर्म का विलय शुद्धता का हेतु है। भावतंत्र के माध्यम से कर्मवर्गणा के पुदगल निरन्तर विपाक के रूप में बाहर आते रहते हैं । अध्यवसाय की सूक्ष्म परिणति लेश्या के रूप में पहचानी जाती है। लेश्या स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों से जुड़ी है। यह लेश्या कषाय रंजित अध्यवसायों को चित्त के माध्यम से स्थूल शरीर में अभिव्यक्ति देती है। __लेश्या हमारे आत्म-परिणामों से बनती है और बाद में वह नए परिणामों को बनाने में निमित्तभूत हो जाती है। हमारी चेतना द्रव्यलेश्या के रूप में जिन पुद्गलों को ग्रहण करती है उसी के अनुरूप आत्मपरिणाम बनते हैं। प्रज्ञापना सूत्र' में इस तथ्य को बहुत स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया गया है। जैनाचार्यों ने लेश्या को कर्म निस्यन्द-निर्झर नाम से परिभाषित किया है । यह परिभाषा बहुत समीचीन है। निर्झर से निरन्तर जल प्रवाहित होने पर भी उसका स्रोत जैसे सूखता नहीं है, वैसे ही लेश्या का स्रोत-अध्यवसाय तंत्र कार्मण शरीर सदा भरा का भरा रहता है। लेश्यारूपी निर्झर के प्रकटीकरण की प्रणालिकाएं हमारे स्थूल शरीर में अन्तःस्रावी ग्रंथियों के रूप में हैं। इनके स्राव रक्त के साथ परिसंचरण करते हुए नाड़ी तंत्र तक पहुंचते हैं । नाड़ी तंत्र हमारी प्रवृत्ति के मुख्य उपकरण मन, वचन और शरीर का संचालक है। ग्रंथियों के स्राव नाड़ी तंत्र और मस्तिष्क के सहयोग से हमारे अन्तर्भाव, चिन्तन, वाणी, आचार और व्यवहार को संचालित एवं नियंत्रित करते हैं। ____ हमारी चेतना की कार्य-प्रणाली के सूक्ष्म और स्थूल दो स्तर हैं। सूक्ष्म जगत में अध्यवसाय हमारे सम्पूर्ण ज्ञान का साधन है। स्थूल जगत में मन अथवा मस्तिष्क। मन और चित्त एक नहीं है। चित्त चेतना का पर्यायवाची शब्द है और मन उसके द्वारा काम कराने के लिये प्रयुक्त एक तंत्र है। चित्त को परिभाषित किया गया - "आत्मनश्चैतन्यविशेष परिणामो चित्तम्"।' स्वसंवेदन - उपयोग इसका लक्षण है। यह हेय, उपादेय का विचार करने वाला है। चित्त की सत्ता त्रैकालिक है जबकि मन केवल मनन काल में ही होता है। स्मृति, कल्पना और चिन्तन मन के कार्य हैं। मन चंचल होता है जबकि चित्त स्थिर हो सकता है। 1. प्रज्ञापना, 233; 2. सर्वार्थसिद्धि 2/32/234 3. सिद्धिविनिश्चय 6/22/492/20; 4. द्रव्यसंग्रह, टीका 14/46/10 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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