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मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या
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हमारे अस्तित्व के केन्द्र में चैतन्य (द्रव्यात्मा) है। संसार का निम्नतम प्राणी सूक्ष्म निगोद तक इस चैतन्य अर्हता से सम्पन्न है। यदि ऐसा न होता तो जीव और अजीव की भेदरेखा ही समाप्त हो जाती।' हमारे चैतन्य के चारों ओर कषाय के वलय के रूप में कार्मण शरीर है। कर्म से घिरे आत्मतत्त्व की जो भी प्रवृत्ति होगी, उसको कषाय के वलय से गुजरना होगा। चैतन्य के असंख्य स्पन्दन निरन्तर कषाय के वलय को भेदकर बाहर आ रहे हैं। ये स्पन्दन जब सूक्ष्म शरीर से होकर बाहर आते हैं तो उनका एक स्वतंत्र तंत्र बनता है जो कि अध्यवसाय तंत्र कहलाता है।
समयसार में बुद्धि, अध्यवसाय, व्यवसाय, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम एकार्थक शब्द माने गए हैं।
बुद्धी वसाओवि य अज्झवसाणं मई व विण्णाणं ।
एकट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो । अध्यवसाय हमारी चेतना की सूक्ष्म परिणति है। यह प्राणी मात्र में होता है। सूक्ष्म जगत में जितने कर्मसंस्कार, वृत्तियां, वासनाएं, आवेग और आवेश हैं, वे सभी सूक्ष्म शरीर में अध्यवसाय के रूप में हैं। ये अध्यवसाय असंख्य होते हैं और निरन्तर सक्रिय रहते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जा सकता है कि अध्यवसाय का कार्य बहुत कुछ अचेतन जैसा है।
अध्यवसाय कर्मबन्ध का मूलस्रोत है। इसे भावचित्त, आश्रव भी कहा जा सकता है। पांच आश्रवों (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग) में एक है - अविरति आश्रव, जो कर्मबन्ध की प्रक्रिया में प्रतिक्षण गतिशील रहता है। इसके द्वारा संज्ञी (जिनके मन होता है) और असंज्ञी (जिनके मन नहीं होता) दोनों के कर्मबन्ध होता है। इस सन्दर्भ में सूत्रकृतांग' में की गई कर्मबन्ध की चर्चा विशेष महत्त्व रखती है।
सूत्रकृतांग में उल्लेख मिलता है कि मनशून्य, वचनशून्य वनस्पति जीव अठारह पाप का सेवन करता है। इसका एकमात्र कारण है - अप्रत्याख्यान यानी अविरति आश्रव। प्राणी में सोते, जागते, स्वप्नावस्था में निरन्तर अप्रत्याख्यान का प्रवाह चालू रहता है जो कर्मागम का द्वार है। इस अविरति के कारण असंज्ञी जीव को अव्यक्त चेतना में भी सतत कर्मसंचय होता रहता है। षड्जीवनिकाय की हिंसा का प्रतिबन्ध नहीं होता, इसलिए अठारह पापों का सेवन असंज्ञी जीव के भी होता है । सूक्ष्म जीवों में सारा ज्ञान अध्यवसायों से होता है।
अध्यवसाय शुद्ध और अशुद्ध दोनों होते हैं। जिस अध्यवसाय में रागद्वेषात्मक संक्लेश होता है वह अशुद्ध अध्यवसाय है और जिसमें रागद्वेषात्मक संक्लेश नहीं होता वह शुद्ध
1. नन्दी सूत्र-71;
2. समयसार 271;
3. सूत्रकृतांग 2/4
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