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________________ मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के विपाक एवं मूल संवेगों में भी साम्यता देखी जा सकती है। मोहनीय कर्म के विपाक संवेग क्रोध भय भय क्रोध जुगुप्सा जुगुप्सा भाव, विकर्षण भाव स्त्रीवेद पुरुषवेद कामुकता नपुसंकवेद अभिमान स्वाग्रह भाव, उत्कर्ष भावना लोभ स्वामित्व भावना, अधिकार भावना रति उल्लसित भाव अरति दुःख भाव कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान दोनों ही इन्हें व्यवहार के घटक बिन्दु मानते हैं। लेश्या : स्थूल और सूक्ष्म चेतना का सम्पर्क-सूत्र । अचेतन के स्तर पर मनोविज्ञान ने जिस रूप में अज्ञात जगत को विश्लेषित किया है, उससे भी बहुत कुछ अधिक हम उसे लेश्या संप्रत्यय के माध्यम से समझ सकते हैं। इस सन्दर्भ में व्यक्तित्व की व्यूह-रचना को जानना बहुत जरूरी है। स्थूल एवं सूक्ष्म चेतना के स्तर पर लेश्या कैसे सम्पर्क-सूत्र बनती है ? भीतरी अध्यवसायों के साथ जुड़कर कैसे लेश्या व्यवहार का संचालन करती है ? चेतना की इन सभी भूमिकाओं पर लेश्या की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। जैन मनोविज्ञान की भाषा में अचेतन को कर्मशरीर के साथ प्रवृत्त चेतना, अवचेतन को तैजस शरीर के साथ प्रवृत्त चेतना और चेतन को औदारिक यानी स्थूल शरीर के साथ प्रवृत्त चेतना माना जा सकता है। चेतन मन जो कुछ भी करता है उसमें अवचेतन-अचेतन मन की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका अपना प्रभाव होता है । अवांछित इच्छायें, वासनायें व कामनायें अचेतन में दब जाती हैं । जब ये जागृत होती हैं तब चेतन मन को प्रभावित करती हैं। कर्मशास्त्रीय भाषा में इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि पूर्वाजित कर्म जब उदय में आते हैं, अपना फल देना शुरू करते हैं तब मन उनसे प्रभावित होता है और व्यक्ति उनके अनुसार आचरण और व्यवहार करने लगता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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