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मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या
जैन दर्शन ने मनोवृत्तियों के सन्दर्भ में लेश्या सिद्धान्त की चर्चा की है, जिसके साथ कषाय और योग का पूरा सिद्धान्त जुड़ा है । कषाय सिद्धान्त में सिर्फ मनोवृत्तियों का, आवेगों का प्रतिपादन है जबकि कषाय की अधिकता /अल्पता अथवा तीव्रता / मन्दता से लेश्या के आधार पर व्यक्तित्व की प्रशस्तता / अप्रशस्तता निर्धारित की जाती है । लेश्या सिद्धान्त का संबंध शुभ-अशुभ दोनों मनोवृत्तियों से जुड़ा है, अतः कषाय और लेश्या की चर्चा अपेक्षित है ।
कषाय (संवेग) की विविध परिणतियां
'कषाय' शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है । यह कष् और आय, इन दो शब्दों से बना है । कष् का अर्थ है - संसार, कर्म अथवा जन्म-मरण। जिसके द्वारा प्राणी कर्मों से बांधा जाता है या जीव जिससे पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है । जो मनोवृत्तियां आत्मा को कलुषित करती हैं, उन्हें जैन मनोविज्ञान की भाषा में कषाय कहा जाता है ।
कर्मशास्त्रीय भाषा में आवेगों का मूल स्रोत है - मोह । मोह का मूल है राग और द्वेष । राग-द्वेष द्वारा एक चक्र चल रहा है, वह चक्र है आवेग और उप आवेग । राग और द्वेष है, इसीलिए क्रोध, मान, माया, लोभ चार कषाय रूप आवेग हैं और हास्य, रति, अरति,
भय, शोक, जुगुप्सा, , स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद रूप उपआवेग हैं, जिन्हें नोकषाय कहा
जाता है।
आगम में कहा गया है कि कर्मबन्ध के संबंध में पाप के दो स्थान हैं' - राग और द्वेष । राग से माया और लोभ तथा द्वेष से क्रोध और मान की उत्पत्ति होती है।
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जैनाचार्यों ने क्रोध और मान को द्वेषात्मक अनुभूति तथा माया और लोभ को रागात्मक अनुभूति माना है। विशेषावश्यक भाष्य' तथा कषायपाहुड़' में विभिन्न दृष्टियों से इस विषय पर विचार किया गया है। नयों की दृष्टि से इस वर्गीकरण में विस्तार हुआ ।
नैगम और संग्रहनय की अपेक्षा दो अनुभूतियां हैं रागात्मक और द्वेषात्मक । व्यवहारनय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया तीनों द्वेषात्मक तथा केवल लोभ रागात्मक माना गया है । क्रोध द्वेष रूप इसलिए है कि यह समस्त अनर्थों का मूल है। अभिमान भी दूसरों
गुणों के प्रति असहिष्णुता का प्रतीक है । माया में अविश्वास तथा लोकनिन्दा निहित है । निन्दा कभी प्रिय नहीं होती। लोभ रागात्मक इसलिए है कि वह प्रसन्नता का कारण है 1 ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा क्रोध द्वेषात्मक होता है और मान, माया, लोभ न राग प्रेरित होते हैं, न द्वेष प्रेरित होते हैं। प्रियता होने पर रागरूप है और अप्रियता होने पर वे द्वेष रूप है। इस तरह चारों कषाय आत्मा की आवेगात्मक अभिव्यक्तियां हैं। क्रोध, मान, माया
2668-71
1. ठाणं 2/394; 2. विशेषावश्यक भाष्य 3. कपाय पाहुड़ 1/1, 21 ( चूर्णी सूत्र व टीका) 335-41
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