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मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या
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कर रहा है। संवेग को परिभाषित करते हुए कहा गया है - किसी प्रकार के आवेग में आने, भड़क उठने और उत्तेजित दशा को सूचित करने वाला तत्त्व है संवेग। कहीं-कहीं भावना और मनोदशा को भी अनुप्रेरक के क्रम में परिगणित किया जाता है। ___ अनुप्रेरणा के मुख्य दो प्रकार हैं - वैयक्तिक और सामाजिक। वैयक्तिक अनुप्रेरणा में आदत, जीवन-ध्येय, अभिरुचि, मनोवृत्ति, अचेतन इच्छाएं आदि सभी सम्मिलित हैं। सामाजिक प्रेरणा में मुख्य है - आत्मगौरव एवं आत्महीनता के प्रेरक तथा सामाजिक सुरक्षा। संवेग का प्रदर्शन तीन स्तरों पर होता है -
1. चेतना में परिवर्तन 2. बाह्य व्यवहार में परिवर्तन 3. आन्तरिक क्रियाओं में परिवर्तन
संवेग की स्थिति में हमारा स्वतः संचालित नाडीतंत्र, वृहद् मस्तिष्क और हाइपोथेलेमस विशेष रूप से प्रभावित होता है। संवेग की समाप्ति के बाद भी उसका प्रभाव कुछ समय तक हमारी चेतना पर बना रहता है और उस स्थिति में व्यक्ति मानसिक दृष्टि से जो अनुभव करता है, उसे मनोविज्ञान की भाषा में मनोदशा कहा गया है।
संवेग और मनोदशा के अन्तर को हम एक और प्रकार से भी समझ सकते हैं। मनोदशा का कालमान अधिक और भावों की तीव्रता कम होती है, जबकि संवेग का कालमान कम एवं भावों की तीव्रता अधिक होती है। इन दोनों में अन्त:क्रिया चलती रहती है। मूलप्रवृत्ति अथवा संवेग जब किसी वस्तु के चारों ओर स्थायी रूप से सुसंगठित हो जाते हैं, तब उसे स्थायी भाव कहते हैं। यह स्थूल वस्तुओं के प्रति बहुत सहजता से निर्मित होता है। स्थायीभाव की तरह ही हमारे अन्तरंग व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है - भावना ग्रंथि (Complex)। इसमें हमारी वे इच्छाएं समाविष्ट हैं जो समाज विरुद्ध होने के कारण अचेतन के जगत् में भेज दी गई हैं, पर वहां जाकर वे निष्क्रिय नहीं हो जाती। उनकी क्रियाशीलता बराबर बनी रहती है। ऐसी इच्छाओं को इदम् आवेश भी कहा जाता है। __ प्रस्तुत प्रसंग में स्थायीभाव और भावनाग्रंथि के अन्तर को समझ लेना भी परम आवश्यक है, क्योंकि ऐसा किए बिना हम अन्तरंग व्यक्तित्व को भलीभांति समझ नहीं सकते। नैतिक एवं चेतन रूप से क्रियाशील भावना को स्थायीभाव एवं अनैतिक तथा अचेतन रूप से क्रियाशील भावना को भावनाग्रंथि कहा जाता है। इन दोनों से संचालित हो व्यक्ति ऐच्छिक और अनैच्छिक क्रियाएँ करता है । ऐच्छिक क्रियाएं चेतन तथा अर्जित होती हैं, जबकि अनैच्छिक क्रियाओं का स्वरूप इससे सर्वथा भिन्न होता है। अनैच्छिक क्रियाओं में छह प्रकार की क्रियाएं समाविष्ट हैं - 1. स्वयं संचालित 2. आकस्मिक 3. सहज 4. संबद्ध 5. भावनात्मक 6. मूलप्रवृत्यात्मक। ___ हमारे अन्तरंग व्यक्तित्व की दृष्टि से मूलप्रवृत्यात्मक क्रियाएं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि हमारी मानसिक रचनाओं का रूप यही है। व्यवहार और अनुभव के आधार पर
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