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________________ 62 लेश्या और मनोविज्ञान । इनमें प्रथम आठ संज्ञाएं संवेगात्मक और अन्तिम दो संज्ञाएं ज्ञानात्मक हैं। इनकी उत्पत्ति बाह्य और आन्तरिक उत्तेजना से होती है। इनके अतिरिक्त तीन प्रकार की संज्ञाओं का प्रतिपादन और किया गया है - 1. हेतुवादोपदेशिकी, 2. दीर्घकालिक, 3. सम्यग्दृष्टि - ये तीनों संज्ञाएं ज्ञानात्मक हैं। आचारांग नियुक्ति' में चौदह प्रकार की संज्ञाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है - आहार भय परिग्गह मेहुण सुख दुक्ख मोह वितिगिच्छा। .कोह माण माया लोहे सोगे लोगे य धम्मोहे ॥ पूर्ववर्णित दस संज्ञाओं के अतिरिक्त चार नई संज्ञाएं इस प्रकार हैं - सुख-दु:ख, मोह, विचिकित्सा, शोक। ओघ संज्ञा के स्थान पर धर्मसंज्ञा शब्द का प्रयोग मिलता है । संज्ञा के उपर्युक्त वर्गीकरण में लोक और ओघ दो संज्ञाओं को छोड़कर सभी संवेगात्मक हैं। जब हम कार्यकारण भाव की दृष्टि से विचार करते हैं तो इन संज्ञाओं के तीन वर्ग बन जाते हैं - 1. आहार, भय, मैथुन, परिग्रह 2. क्रोध, मान, माया, लोभ 3. लोक, ओघ प्रथम वर्ग की संज्ञाओं के कारण दूसरे वर्ग की संज्ञाएं उभरती हैं, विकसित होती हैं। एक कुत्ते को रोटी डाली गई, दूसरा कुत्ता उसे छीनने के लिए झपटता है। रोटी के कारण क्रोध पैदा होता है। एक व्यक्ति को अच्छी आजीविका मिल रही है, दूसरा उस स्थान पर आने का प्रयत्न करता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो आपस में मनमुटाव हो जाता है। इसी प्रकार आहार संज्ञा के कारण मान, माया और लोभ जागते हैं। भय, मैथुन और परिग्रह से भी क्रोध आदि संज्ञाएं जागती हैं । ओघ संज्ञा सामुदायिकता की द्योतक है। अधिकांशत: व्यक्ति सामुदायिक चेतना के स्तर पर सोचता है - जो सबको होगा, वह मुझे भी हो जाएगा। मैं अकेला इससे वंचित क्यों रहूं, इत्यादि । सामुदायिकता के साथ-साथ हमारी वैयक्तिक चेतना भी सक्रिय होती रहती है। जैन दर्शन इस चेतना को लोकसंज्ञा के नाम से पुकारता है। मूल प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में जैन दर्शन ने जो एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान किया है, वह है इनकी कारणता पर विचार । मनोविज्ञान के क्षेत्र में यह विषय अब तक अनछुआ ही रहा है। वेदनीय और मोहनीय कर्म की सक्रियता के अतिरिक्त अन्य कारण इस प्रकार हैं - आहार संज्ञा 1. रिक्त कोष्ठता 2. आहार के दर्शन से उत्पन्न मति 3. आहार संबंधी चिन्तन 1. आचारांग नियुक्ति गाथा-39 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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