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मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या
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है किन्तु महत्त्वपूर्ण बात है भावों/लेश्या के प्रति जागरूकता की जिससे चेतन, अचेतन के संस्कारों का शोधन सम्भव हो सके। ____ मनोविज्ञान द्वारा प्रतिपादित चेतना के विभिन्न स्तरों को जब हम जैन दर्शन के लेश्या संप्रत्यय के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो दोनों का तुलनात्मक स्वरूप उभर कर हमारे सामने आता है।
जीवनमूलक शक्ति के रूप में फ्रायड लिबिडो की चर्चा करता है। प्रश्न उभरता है कि लेश्या सिद्धान्त के साथ उसकी संगति कैसे होगी? हम गहरे में उतरकर देखें तो पाएंगे कि इस दृष्टि से मनोविज्ञान और जैन दर्शन दोनों एक ही धुरी पर खड़े हैं । जैन दर्शन संज्ञा के सन्दर्भ में जीव को वेदन की संज्ञा देता है और फ्रायड 'काम' को मूलप्रवृत्ति मानता है । यद्यपि दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न होने के कारण दोनों की अभिव्यक्ति में अन्तर आ गया है। मनोविज्ञान व्यवहार का शास्त्र होने के कारण लिबिडो को सारी प्रवृत्तियों का मूल मानता है, जबकि जैन दर्शन अध्यात्म का व्याख्याता होने के कारण कामनाओं से मुक्त होने की बात पर बल देता है। वह भी बराबर यह कहता है कि - कामे कमाही कमियं खु दुक्खं - कामना संसार का मूल है। इन दो भिन्न-भिन्न दृष्टियों से कहे गए पहलुओं को मिलाकर देखते हैं तो दोनों का निष्कर्ष एक ही आता है। मूलप्रवृत्तियां और संज्ञाएं
चेतना के भिन्न-भिन्न स्तरों की मनोविज्ञान आज जिस तरह अलग-अलग नामों से पहचान करवाता है एवं उनकी कार्यपद्धति पर प्रकाश डालता है, वैसा विस्तृत वर्णन यद्यपि हमें जैन दर्शन में नहीं मिलता, पर उसके मूलभूत स्रोत का वर्णन सांगोपांग उपलब्ध होता है । मानव व्यवहार के मूलभूत स्रोत मूलप्रवृत्ति को जैन दर्शन संज्ञा' के नाम से विश्लेषित करता है। स्थानांग सूत्र में संज्ञा शब्द को व्याख्यायित करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि लिखते हैं - हमारी चेतना की एक विशेष अवस्था संज्ञा है । इस स्थल पर उन्होंने एक विशेष जानकारी यह दी है कि संज्ञा का अर्थ मनोविज्ञान भी किया गया है। जैन ग्रन्थों में मनोविज्ञान शब्द का यह प्रयोग हमें उस समय उपलब्ध होता है जबकि विश्व के दूसरे-दूसरे दार्शनिक इसकी प्राक्कल्पना भी नहीं कर पाए थे। जैन दर्शन में संज्ञा के दस प्रकारों का प्रतिपादन किया गया है। वे इस प्रकार हैं - 1. आहार
6. मान 2. भय
7. माया 3. मैथुन
8. लोभ 4. परिग्रह
9. ओघ 5. क्रोध
10. लोक
1. दसवैकालिक 2/5; 2. संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः मनोविज्ञानमित्यन्ये । स्थानांग वृत्तिपत्र 478 3. स्थानांग 10/105
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