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लेश्या और मनोविज्ञान
शुभ-अशुभ लेश्या और पुण्य-पाप __ लेश्या को छ: द्रव्यों में जीव और नव पदार्थों में जीव, आश्रव, निर्जरा माना गया है।' लेश्या को आश्रव तत्त्व में इसलिए समाविष्ट किया गया, क्योंकि लेश्या द्वारा कर्मबन्ध होता है। आश्रव का अर्थ है - कर्माकर्षण हेतुरात्मपरिणाम आश्रव - आत्मा का वह परिणाम जिससे आत्मा में कर्मों का आकर्षण होता है। पांच आश्रवों में योग-आश्रव से लेश्या का सीधा संबंध जुड़ता है। योग प्रवृत्ति के तीन स्रोत - मन, वचन और काय - ये तीनों शुभ-अशुभ होते हैं। शुभ परिणाम से होने वाला शुभयोग और अशुभ परिणाम से होने वाला अशुभयोग कहलाता है। तत्त्वार्थसूत्र में शुभ-अशुभ योगाश्रव को पुण्यपाप कहा गया है।' ___ जैन तत्त्ववेत्ताओं ने लेश्या परिणामों से पुण्य-पाप का बंध माना है । द्रव्यसंग्रह में अशुभ परिणामों से युक्त जीव को पाप और शुभपरिणामों से युक्त जीव को पुण्य कहा है। कर्म का बंध शुभ-अशुभ परिणामों से होता है, अतः पुण्यरूप पुद्गल कर्म के बन्धन का कारण होने से शुभ परिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गल के कर्मबन्धन का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप है। पाप के सन्दर्भ में पंचास्तिकाय ने जहां चार संज्ञायें, इन्द्रियवशता, आर्त्तरौद्रध्यान, दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह भाव को पापप्रद माना, वहां तीन अशुभ लेश्या को भी पाप माना है। ___ शुभ लेश्या से पुण्य का बंध होता है इसलिए उसे आश्रव कहा गया है। शुभ लेश्या से शुभकर्म का और अशुभलेश्या से अशुभकर्म का बन्ध होने के कारण उत्तराध्ययन सूत्र में इसे कर्मलेश्या और धर्मलेश्या का नाम दिया गया है। लेश्या के साथ पुण्य-पाप की व्याख्या उसकी शुभता-अशुभता का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती है। पुण्य-पाप की जैन अवधारणा
पुण्य-पाप (शुभ-अशुभ) दोनों ही साधना के क्षेत्र में बाधक तत्त्व हैं, क्योंकि पुण्यपाप दोनों विजातीय तत्त्व हैं, इसलिए दोनों ही आत्मा की परतंत्रता के कारण हैं। पुण्य की हेयता के विषय में जैन परम्परा का एक मत है जबकि उसकी उपादेयता में कुछ विचार भेद है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य-पाप का आकर्षण करने वाली विचारधारा को पर समय माना है। दोनों संसार बंध के कारण हैं। एक सोने की बेड़ी है, दूसरी लोहे की बेड़ी हैं, दोनों ही उपादेय नहीं, क्योंकि आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धि-नाश, बुद्धि-नाश से पाप होता है। इसलिए पुण्य हमें काम्य नहीं।' आचार्य भिक्षु ने कहा - पुण्य की इच्छा से पापबंध होता है। पुण्य से भोग मिलता है, भोग की इच्छा से संसार बढ़ता है।
1. झीणी चर्चा, ढाल 1/5; 2. जैन सिद्धान्त दीपिका, 4/16 3. जैन सिद्धान्त दीपिका, 4/26; 4. वृहद् द्रव्यसंग्रह - 38; 5. पंचास्तिकाय, 140 6. उत्तराध्ययन 34/1, 57; 7. पंचास्तिकाय 164-166; 8. समयसार 146 9. परमात्मप्रकाश 2/60; 10. नवपदार्थ, पुण्य ढाल/52, 59;
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