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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
बंधन आखिर बंधन है। इसलिए भगवान महावीर ने कहा पुण्य और पाप दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है। इसी तरह पुण्य की उपादेयता के सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में लिखते हैं कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है। उनकी दृष्टि में आत्मसाधना में पुण्य एक सहायक तत्त्व है। आचार्य हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि पुण्य कर्मों का लाघव है और शुभकर्मों का उदय है । दृष्टि में पुण्य अशुभ कर्मों की अल्पता और शुभ कर्मों के उदय फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का सूचक है। मूलाराधना में उस आत्मा को पुण्य कहा है जो सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूपपरिणाम तथा कषायनिग्रह से परिणत है ।
पुण्यार्जन की क्रिया : अनासक्त भाव से कर्मक्षय
पुण्यकर्म के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि पुण्यार्जन की सारी क्रियायें जब अनासक्त भावों से की जाती हैं तो वे शुभबन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय का कारण बन जाती है। ठीक इसके विपरीत संवर निर्जरा के कारण संयम और तप जब आसक्त भाव या फलाकांक्षा से जुड़ जाते हैं तो वे कर्मक्षय या निर्वाण का कारण न होकर बन्धन का कारण बन जाते हैं । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा जो आश्रव या बन्धनकारक क्रियायें हैं वे ही अनासक्ति और विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधक बन जाती हैं। अतः शुभ-अशुभ भावों से हटकर वे कर्म बन्धकारक नहीं बनते, जब चेतना जागृत हो, अप्रमत्त हो, विशुद्ध हो, वासनाशून्य हो, सम्यग्दृष्टि सम्पन्न हो । अतः हिंसा-अहिंसा, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ बाह्य परिणामों पर निर्भर नहीं होते वरन् उसमें कर्त्ता की चित्तवृत्ति ही प्रमुख होती है।
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1. उत्तराध्ययन 21/24; 3. मूलाराधना 234;
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पुण्य-पाप कर्म का ग्रहण होना आत्मा के अध्यवसाय पर, लेश्या परिणाम पर निर्भर है । जैनदर्शन द्रव्य और भाव दोनों पक्षों को मूल्य देता है । मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ अथवा मनोवृत्ति अशुभ हो, क्रिया शुभ, ऐसा संभव नहीं ।
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शुभाशुभ कर्मों में प्रमुखता राग की उपस्थिति या अनुपस्थिति की नहीं, उसकी प्रशस्तता या अप्रशस्तता की है। प्रशस्त राग शुभ या पुण्यबन्ध का कारण माना गया है और अप्रशस्त राग पापबन्ध का कारण । यद्यपि राग-द्वेष साथ-साथ रहते हैं फिर भी जिसमें राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अल्प और मन्द होगी, वह राग उतना ही प्रशस्त होगा । इसलिए अन्तिम तीन लेश्या को प्रशस्त, असंक्लिष्ट और विशुद्ध कहा गया। जैन तत्त्व दर्शन में शुभ भाव लेश्या द्वारा पुण्यबंध होता है इसलिए जहां उसे आश्रव माना गया, वहां उससे कर्म टूटते हैं इसलिए निर्जरा तत्त्व में भी समाविष्ट किया गया। शुभलेश्या से निर्जरा
निर्जरा से तात्पर्य ऐसे जीव के परिणाम जिनसे कर्मों का निर्जरण होता है । आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है । यह पुरातन कर्मों के क्षय करने की प्रक्रिया है । लेश्या
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2. सर्वार्थसिद्धि 6/3 की टीका
4.
झीणी चरचा 1/12;
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