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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
परिचायक है। किस गति में, किस जीव में कौनसी लेश्याएं होती हैं, इसका विवेचन जैन वाङ्मय में विस्तार से उपलब्ध होता है।
1. रत्नप्रभा - कापोत लेश्या 2. शर्कराप्रभा - कापोत लेश्या 3. वालुकाप्रभा - कापोत लेश्या और नील लेश्या 4. पंकप्रभा - नील लेश्या 5. धूम्रप्रभा - नील लेश्या, कृष्ण लेश्या 6. तमप्रभा - कृष्ण लेश्या 7. महातमप्रभा - परम कृष्ण लेश्या'
संग्रहणी गाथा में सब जीवों के लिए एक साथ लेश्याओं का उल्लेख मिलता है। समुच्चय की दृष्टि से देवताओं में छहों लेश्याएं पाई जाती हैं । भवनपति और व्यन्तर देवों में - कृष्ण, नील, कापोत, तेजोलेश्या। ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देवों में - केवल तेजोलेश्या। सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक - पद्मलेश्या। आगे के देव लोक में - शुक्ललेश्या।
बादर पृथ्वीकाय, अप्पकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में प्रारम्भ की चार लेश्याएं होती हैं। गर्भज तिर्यञ्चों और मनुष्यों में छ: लेश्याएं और शेष जीवों में प्रथम तीन लेश्याएं होती हैं।
उल्लेखनीय बिन्दु है कि सामान्यतः एकेन्द्रिय जीवों के प्रथम तीन कृष्ण, नील, कापोत लेश्या मानी गई हैं पर सूक्ष्म, बादर भेद की अपेक्षा से जब लेश्या का विचार किया जाता है तो अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों का स्वामित्व चार लेश्याओं - कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या कहा जाता है।
अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों में तेजोलेश्या मानने का कारण यह है कि तेजोलेश्या वाले ज्योतिषी आदि देव जब उसी लेश्या में मरते हैं और बादर पृथ्वीकाय, अप्पकाय या वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं तब उनके अपर्याप्तावस्था में तेजोलेश्या होती है।' लेश्या की शुभ-अशुभ अवधारणा
लेश्या का शुभ-अशुभ होना आत्मपरिणामों पर निर्भर है और आत्मपरिणामों की शुभता-अशुभता, प्रशस्तता-अप्रशस्तता कषाय की तीव्रता और मन्दता पर निर्भर है। लेश्या की शुभ-अशुभ अवधारणा के सन्दर्भ में हमें आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, पुण्य-पाप आदि की तत्त्वमीमांसा समझनी होगी।
- 1. भगवती 1/244 संग्रहणीगाथा, पृ. 44; 2. प्रज्ञापना मलयवृत्ति, पत्रांक 344
3. चतुर्थ कर्मग्रंथ स्वोपज्ञ टीका, पृ. 124
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