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लेश्या और मनोविज्ञान
प्रश्न उभरता है कि जीव मरकर इन गतियों में क्यों उत्पन्न होता है ? क्या एक गति का जीव बार-बार उसी गति में जनमता-मरता है या उसका उत्क्रमण या अपक्रमण भी होता है ? यदि उत्क्रमण या अपक्रमण होता है तो उसका कारण क्या है ?
कारण की मीमांसा में यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन गतियों में जीवों की उत्पत्ति का एक मुख्य घटक है - लेश्या। मनुष्य जीवन में जो अत्यन्त क्लिष्ट कर्म करता है वह अशुभ अध्यवसाय और लेश्या परिणामों के कारण मरकर नरक में उत्पन्न होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अपने जीवन काल में अत्यन्त क्रूर अध्यवसायों, अशुभ लेश्याओं के वशीभूत होकर अत्यन्त क्लिष्ट कर्म उपार्जित करते हैं और वे कर्म उन्हें नरक गति की प्राप्ति में हेतुभूत बनते हैं और नरक में भी वे महा वेदना वाले होते हैं, क्योंकि वहां भी उनका लेश्या परिणाम क्लिष्ट होता है।
इन छ: लेश्याओं की यह नियामकता नहीं है कि अमुक लेश्या वाला इन चार गतियों में से अमुक गति में ही जाएगा, क्योंकि मनुष्य में छहों लेश्याएं होती हैं और चारों गतियों में से किसी एक गति का आयुष्य बन्ध भी करता है। इससे यह स्पष्ट है कि लेश्याओं की गतियों के साथ पूर्ण नियामकता न होने पर भी लेश्या स्थानों की असंख्यता के कारण कुछेक लेश्या स्थान अवश्य नियामक बनते हैं। कृष्ण लेश्या नरक का ही कारण है, यह बात नहीं है, किन्तु कृष्णलेश्या का क्लिष्टतम परिणाम नरक का ही कारण बनेगा। ___ ज्योतिष्क देव योनि में एक तेजोलेश्या ही होती है, वहां देवी-देवताओं में लेश्यागत भेद नहीं है, क्योंकि भावों की वहां क्लिष्टता नहीं है। असंज्ञी आयुष्य चार प्रकार का है - नैरयिक असंज्ञी आयुष्य, तिर्यञ्च योनिक असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य योनिक असंज्ञी आयुष्य और देव असंज्ञी आयुष्य। जो असंज्ञी नरक में जाते हैं वे रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने पर भी तीव्र क्लिष्टतम लेश्या या अध्यवसाय के अभाव में ऐसे नरकावासों में उत्पन्न होते हैं, जहां वेदना तीव्र नहीं है। अत: कहा जा सकता है कि लेश्या गति निर्धारण का मुख्य घटक है। __ आगमों में कथन है कि कृष्ण, नील और कापोत - ये तीन लेश्यायें दुरभिगन्धवाली, अविशुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, शीत-रुक्ष और दुर्गति में ले जाने वाली हैं। तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याएं सुरभिगन्धवाली, विशुद्ध, प्रशस्त, असंक्लिष्ट, स्निग्ध-उष्ण और सुगति प्राप्त कराने वाली हैं। प्रथम तीन लेश्याओं के सबकुछ अप्रशस्त हैं इसलिए ये सब अप्रशस्त अध्यवसाय के कारण बनते हैं, शेष तीन लेश्याओं के सबकुछ प्रशस्त हैं, इसलिए ये सब प्रशस्त अध्यवसाय के कारण बनते हैं। अप्रशस्त द्रव्य, अप्रशस्त अध्यवसाय, प्रशस्त द्रव्य, प्रशस्त अध्यवसाय, ये सभी कारण बनते हैं।
ये सारे तथ्य लेश्या के गति-नियामक मानने के लिए पर्याप्त हैं।
जैनदर्शन चारों गतियों के प्रत्येक जीव में लेश्या का अस्तित्व मानता है। प्रत्येक प्राणी लेश्यावान है। शुभ-अशुभ लेश्या का जीवों में होना उनके आत्म-विकास का
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