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________________ लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्थाओं में लेश्या के छ: प्रकार भी परिगणित हैं । लेश्या की कषायपरिणामजनित, कर्मपरिणामजनित और योगपरिणामजनित तीनों परिभाषाएं उसके औदयिक रूप को ही स्पष्ट करती हैं। कषाय मोहनीय कर्म का उदय है। कर्म परिणति में कर्म का उदय सहज गम्य है और योग परिणाम भी योगत्रय जनक कर्म के उदय का ही फल है । लेश्या जीवोदय निष्पत्र भाव है। जीव अपने कर्मों के उदय से ही कृष्णादि द्रव्यों का सान्निध्य प्राप्त करता है। इसी विवक्षा से लेश्या को जीवोदय निष्पन्न भाव कहा गया है। उत्तराध्ययन के नियुक्तिकार भद्रबाहु इस मत से सहमत होते हुए भी इस सन्दर्भ में एक विशेष बिन्दु की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। यद्यपि लेश्या उदय निष्पन्न भाव है, पर प्रशस्त लेश्याओं के होने में कर्मों के क्षय, उपशम और क्षयोपशम का बहुत बड़ा योग है । 3 भावों में लेश्या का समावेश छहों द्रव्य लेश्याओं का समावेश एक पारिणामिक भाव में हो जाता है । भावलेश्याएं भिन्न-भिन्न भावों में समाविष्ट होती हैं। प्रथम तीन अशुभ भावलेश्याएं कृष्ण, नील और कापोत दो भावों- औदायिक और पारिणामिक में समाविष्ट होती हैं। इनका मूल घटक है - मोहकर्म का उदय निष्पन्न। इससे ही पापकर्म का बन्ध होता है। शेष सात कर्मों के उदय से पाप का बन्ध नहीं होता । - तैजस और पद्म - इन दो शुभ भाव लेश्याओं में तीन भाव प्राप्त होते हैं - औदयिक, क्षयोपशमिक और पारिणामिक। इनका अस्तित्व सातवें गुणस्थान तक है । भाव शुक्ललेश्या औपशमिक भाव के अतिरिक्त शेष चारों भावों में समाविष्ट होती है। इसके दो विकल्प हैं - 1. बारहवें गुणस्थानवर्ती भाव शुक्ललेश्या का समावेश औदयिक, क्षयोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों में होता है, क्षायिक भाव में नहीं, क्योंकि यहां मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर भी अन्तराय कर्म का क्षय नहीं होता । तेरहवें गुणस्थानवर्ती भाव शुक्ललेश्या का समावेश तीन भावों- उदय, क्षायिक और पारिणामिक में होता है । प्रस्तुत प्रसंग में यह समझ लेना आवश्यक है कि शुभलेश्याएं नाम कर्म के उदय से निष्पन्न औदयिक भाव में, अन्तराय कर्म के क्षय से निष्पन्न क्षायिक भाव में तथा अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव में समाविष्ट होती हैं। गति और लेश्या नरक, तिर्यञ्च, देव और मनुष्य जीव की चार गतियां कही गई हैं। गति का अर्थ है उत्पत्ति स्थान । इनमें देव और मनुष्य गति को श्रेष्ठ और नरक तथा तिर्यञ्च गति को गर्हित माना गया है। इन चार मुख्य गतियों के अवान्तर भेद अनेक हैं । 1. तत्वार्थ सूत्र 2/6; 3. उत्तराध्ययन 34 / नि. गा. 540; 47 Jain Education International 2. कर्मग्रंथ, भाग 4, स्वोपज्ञ टीका, झीणी चर्चा 1/17 4. For Private & Personal Use Only पृ. 191 www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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