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________________ 46 लेश्या और मनोविज्ञान है, उसमें आगे बढ़ने की योग्यता नहीं होती। इसलिए कालमान पूर्ण होते ही वह नीचे आ जाता है। नीचे आते ही मोह की जो कर्म प्रकृतियां उपशान्त थीं, वे एक-एक कर पुन: उदय में आ जाती हैं। निम्नवर्ती गुणस्थानों का स्पर्श करता हुआ जीव सातवें गुणस्थान तक आकर नहीं ठहरता, क्योंकि उनका कालमान बहुत छोटा है। यदि उसकी विशुद्धि छठे गुणस्थान में अवस्थान करने योग्य होती है तो लम्बे समय तक वहां ठहर सकता है, वहां से उत्क्रमण भी कर सकता है पर यदि अपेक्षित विशुद्धि का अभाव है तो वह नीचे गति करते-करते प्रथम गुणस्थान तक आ सकता है। इस विषय में एक बिन्दु और ध्यातव्य है कि जिस जीव ने ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श किया है, उसकी यदि उस गुणस्थान में मृत्यु हो जाती है तो वह देवगति में जाता है। प्रश्न स्वाभाविक है कि गुणस्थानों के इस उपक्रमण में क्या लेश्या योगभूत है? उपक्रमण का मुख्य हेतु मोहनीय कर्म का उदय है पर इस उदय से हमारा लेश्या शरीर प्रभावित होता है, इस अवधारणा के लिये भले आगमिक सन्दर्भ उपलब्ध न होता हो, तब भी उसके प्रभाव का अनुमान करना अपने आपमें अतिरंजना पूर्ण नहीं है, क्योंकि मोहनीय कर्म का उदय होते ही लेश्या की विशुद्धि में तरतमता अवश्यमेव आ जाती है। लेश्या और भाव ___ जैन-दर्शन के अनुसार शुद्ध चैतन्य जीव का मूल स्वरूप है। पर कोई भी संसारी जीव अपने शुद्ध स्वरूप में उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि वह अनादि काल से कर्म परमाणुओं से संयुक्त है । जीव इस जन्म में अपने प्रयत्न से उदय, उपशम, क्षयोपशम आदि विविध रूपों में अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करता रहता है। अस्तित्व की यह अभिव्यक्ति ही जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में भाव कही जाती है। _आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को विकृत करने वाला मुख्य घटक है - मोहकर्म। जब यह कर्म क्षीण होता है, तब आत्मा का सत्-चिद्-आनन्दमय स्वरूप प्रकट होता है । जीव के न्यूनतम विकास की स्थिति में मोहनीय कर्म मिथ्यात्व और असंयम के इन दोनों रूपों में हमारी चेतना को प्रस्फुटित होने नहीं देता। जब ये दोनों पूरी तरह हटते हैं तो विशुद्ध चैतन्य दीपित हो उठता है। इन दोनों स्थितियों के बीच आत्मा में अच्छे-बुरे भावों/परिणामों का आरोह-अवरोह होता रहता है। ___ भाव चेतना का परिणाम है। 'भावः चित्परिणामः' जीव का स्वरूप पंच भावात्मक है। कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक भाव, मोहकर्म के उपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था औपशमिक भाव, कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मा की अवस्था क्षायिक भाव, ज्ञानावरणादि घाति कर्मों के क्षयोपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था क्षायोपशमिक भाव तथा परिणमन से होने वाली आत्मा की अवस्था पारिणामिक भाव है। 1. गोम्मटसार जीवकाण्ड 165, जीवतत्व प्रदीपिका, पृ. 294 2. तत्वार्थ सूत्र 2/1 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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