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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
दूसरा मत शुभलेश्या की प्राप्ति को ही मुख्यता देता है । प्राप्ति के बाद अशुभ लेश्याओं में होने की बात उसमें गौण है । अतः इस अपेक्षा से प्रथम चार गुणस्थानों में ही छहों श्याओं को मानना एक अपेक्षा से भेद को स्पष्ट करना है ।
सातवें गुणस्थान में तैजस और पद्म शुभलेश्याएं होती हैं। सातवें गुणस्थान में आ और रौद्र ध्यान का सर्वथा अभाव होने के कारण निरन्तर परिणामों- भावों की विशुद्धता ही बनी रहती है । अत: इस गुणस्थान में अशुभ लेश्याओं के लिये कोई अवकाश नहीं है।
आठवें से तेरहवें तक केवल शुक्ल शुभलेश्या होती है। अयोगी केवली में कोई लेश्या नहीं होती, क्योंकि वहां योग की सत्ता समाप्त हो चुकी है। योग लेश्या का ही एक पूरक तत्व होने के कारण उसके अभाव में यहां लेश्या का सद्भाव नहीं रहता ।
गुणस्थान और लेश्या के सन्दर्भ में एक ओर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रमत्त संयत तक अशुभ लेश्या का होना तथा दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि में तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या का होना इस बात की ओर संकेत करता है कि गुणस्थानवर्ती जीवों में मूल लेश्याओं के साथ आगन्तुक लेश्याओं का सद्भाव रहता है और इसी कारण उनमें भाव परिवर्तन होता रहता है। आगे के गुणस्थानवर्ती जीव कषाय की मन्दता या क्षीणता से गुजरते हैं, अतः उनमें अशुभ लेश्याओं का होना असम्भव है ।
सातवें गुणस्थान में तेज, पद्म और आठवें से तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ललेश्या में भी परिणमन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। कृष्णादि तीन अशुभलेश्याएं प्रथम गुणस्थान में तीव्रतम और छट्टे गुणस्थान में मन्दतम होती है। इसी प्रकार इसी गुणस्थान में तेज- पद्म लेश्याएं अति मन्दतम और सातवें गुणस्थान में तीव्रतम होती हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में शुक्ललेश्या अति मन्दतम और तेरहवें में अति तीव्रतम होती हैं ।
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तेजोलेश्या और पद्मलेश्या पहले मिथ्यादृष्टि से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक सात गुणस्थानों में होती है, उक्त दोनों लेश्या गुणस्थानों को प्राप्त करने के समय ( प्रतिपद्यमान स्थिति) और प्राप्ति के बाद ( पूर्व प्रतिपन्न) भी रहती है ।
उपशम श्रेणी - यात्रा और लेश्या
आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेने पर जीव ऊर्ध्वारोहण करता है । ऊर्ध्वारोहण की दो श्रेणियां हैं उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी । जिस जीव में मोह की प्रकृतियों को क्षय करने का सामर्थ्य होता है, वह क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर ऊर्ध्वारोहण करता हुआ दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें में चला जाता है। जिस जीव में मोह कर्म की प्रकृतियों को सर्वथा क्षीण करने का भाव - सामर्थ्य नहीं होता, वह उनको उपशांत करता है। वह उपशम श्रेणी में आरूढ़ होकर ऊर्ध्वारोहण करता है। वह दसवें से ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है। इस स्थिति में मोह पूर्णरूप से उपशान्त रहता
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प्रश्न होता है कि उस जीव का वहां से अधःपतन क्यों होता है ? वह आगे क्यों नहीं जा पाता? इस गुणस्थान का कालमान बहुत अल्प है। जो उस गुणस्थान का स्पर्श करता
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