SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेश्या और मनोविज्ञान __ लेश्या और गुणस्थान का बहुत निकटवर्ती संबंध है। दोनों का मुख्य आधार दर्शनमोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय का क्षय-क्षयोपशम तथा योग की शुभता और अशुभता है। लेश्याओं की शुद्धि-अशुद्धि के साथ गुणस्थानों का आरोहण-अवरोहण होता है। अनन्तानुबंधी कषाय का तीव्रतम उदय होने पर कृष्णलेश्या होती है और मन्द उदय होने पर शुक्ललेश्या होती है। योग की भांति कषाय के साथ लेश्या का अन्वय व्यतिरेक संबंध नहीं है । कषाय का क्षय 12वें गुणस्थान में होता है और योग 13वें गुणस्थान तक सक्रिय रहता है। कर्मग्रन्थ में गुणस्थान और लेश्या का वर्णन दो दृष्टियों से उपलब्ध होता है । गुणस्थानों में कितनी लेश्याएं होती हैं तथा लेश्यामार्गणा में कितने गुणस्थान होते हैं ? इस दुहरे प्रश्न के साथ दोनों पर विस्तार से विवेचन किया गया है। इस विवेचन से लेश्या और गुणस्थान के अनेक सन्दर्भ स्वतः स्पष्ट हो जाते हैं। प्रथम छ: गुणस्थानों में प्रशस्त-अप्रशस्त सभी लेश्याएं होती हैं। सातवें गुणस्थान में तेजस, पद्म ये प्रशस्त लेश्याएं होती हैं। शेष गुणस्थान आठवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक एक मात्र शुक्ललेश्या होती है। लेश्या के विषय में जब हम गुणस्थानों की दृष्टि से विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि प्रथम तीन लेश्या में चार गुणस्थान, तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में सात गुणस्थान तथा शुक्ललेश्या में तेरह गुणस्थान होते हैं। लेश्या के कर्मग्रंथीय विवेचन में एक वैचित्र्य प्राप्त होता है । गुणस्थानों की विवेचना में प्रथम छह गुणस्थानों में छह लेश्याएं मानी गई हैं जबकि लेश्या मार्गणा में छहों लेश्याओं को प्रथम चार गुणस्थान तक परिगणित किया गया है। प्रथम मत की पुष्टि पंचसंग्रह, प्राचीन बंध स्वामित्व, नवीन बंध स्वामित्व, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में हुई है। दूसरा मत प्राचीन कर्मग्रन्थ के रचनाकार का है।' प्रथम क्षण में अनुभव होता है कि लेश्या के ये दोनों मन्तव्य एक-दूसरे के विरोधी हैं । पर जब इनके कथन को अपेक्षा भेद से समझ लिया जाता है तो अवधारणा कुछ दूसरी ही बनती है। प्रथम मत के अनुसार भावलेश्या की दृष्टि से जब जीव के शुभलेश्या होती है, तब ही वह पांचवें, छठे गुणस्थान को उपलब्ध होता है। गुणस्थान की प्राप्ति के बाद उस लेश्या में परिवर्तन भी हो सकता है। अशुभ लेश्या की इसी विवक्षा के कारण प्रथम छह गुणस्थानों में छहों लेश्याओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। 1. कर्मग्रन्थ भाग 3, गाथा 24 2. छल्लेस्सा जाव सम्मोति, पहला मत - पंचसंग्रह 1-30 छच्चउसु तिण्णि तीसुं छएहं सुक्का अजोगीअलेस्सा, प्राचीन बंध स्वामित्व गा. 40 3. प्राचीन कर्मग्रन्थ - भाग 4/73 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy