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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
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भावकर्म से द्रव्यकर्म का आ श्रव होता है। यही द्रव्यकर्म समय विशेष में भावकर्म का कारण बन जाता है। पंडित सुखलालजी लिखते हैं कि भावकर्म होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है। दोनों का आपस में बीजांकुर की तरह कार्यकारण भाव संबंध है। ___ केवल द्रव्यलेश्या से भाव नहीं बनते। उसके साथ मोह यानी राग-द्वेषात्मक परिणामों का योग होने पर भाव लेश्या का निर्माण होता है। कहा जा सकता है कि द्रव्यलेश्या आत्मा का बाहरी स्तर है जिसका आधार पौद्गलिक है और भावलेश्या आन्तरिक स्तर है जिसका आधार रागद्वेषात्मक परिणति है। राग-द्वेषमय योगप्रवृत्ति कर्मपुद्गलों का आश्रव करती है, कर्मपुद्गल आत्मक्रिया से आकृष्ट होकर परिणामों के अनुसार शुभता-अशुभता में बदल जाते हैं। लेश्या और गुणस्थान ___ लेश्या का विश्लेषण केवल प्राणी की सांसारिक स्थिति को ही स्पष्ट नहीं करता, कर्ममुक्ति के साथ भी उसका घनिष्ठ संबंध है। जैन-दर्शन में आत्म-विशुद्धि का मापन गुणस्थान के आधार पर किया गया है। आगमों में गुणस्थान के स्थान पर जीवस्थान शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है।
समवायांग के टीकाकार अभयदेव सूरि ने गुणस्थानों को ज्ञानावरण आदि कर्मों की विशुद्धि से निष्पन्न कहा है। युगभाषा में इसे आध्यात्मिक विकास की भूमिका कहा जा सकता है। ये भूमिकाएं निम्न हैं - 1. मिथ्यात्व गुणस्थान
8. निवृत्ति बादर गुणस्थान 2. सास्वादन गुणस्थान
9. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान 3. मिश्र गुणस्थान
10. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान 4. अविरत गुणस्थान
11. उपशान्त कषाय गुणस्थान 5. देशविरत गुणस्थान
12. क्षीणकषाय गुणस्थान 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान 13. सयोगी केवली गुणस्थान 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान 14. अयोगी केवली गुणस्थान
इनमें पहले से चौथे गुणस्थान तक का संबंध दर्शन की विशुद्धता एवं अविशुद्धता के साथ जुड़ा है। पांचवें से चौदहवें गुणस्थान तक सम्यक् आचरण की बात आती है। पांचवें गुणस्थान से इस दिशा में पदन्यास होता है और चौदहवें गुणस्थान पर व्यक्ति शिखर तक पहुंच जाता है।
1. कर्मविपाक, भूमिका - पृ. 24 2. कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य - ज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धि गवेपणामाश्रित्य ।
- समवायांगवृत्ति पत्र - 36 3. समवाओ सूत्र 14/5
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