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________________ लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष सलेशीत्व की दृष्टि से सलेशी जीव की दो स्थितियां बनती हैं - 1. अनादि और अपर्यवसित, 2. अनादि और सपर्यवसित।' प्रथम स्थिति सभी संसारी जीवों की अपेक्षा है और दूसरी स्थिति उन शुक्ल लेश्या वाले जीवों की है, जो इस भव में मुक्त होने वाले हैं। अलेशी जीवों की स्थिति सादि और अपर्यवसित है। काल की अपेक्षा सलेशी जीवों के प्रदेशत्व एवं अप्रदेशत्व की दृष्टि से भी विचार किया गया है। यहां अप्रदेशी का अर्थ एक समय की स्थिति वाले जीव और सप्रदेशी का अर्थ एक समय से अधिक की स्थिति वाले जीवों से है। सलेशी जीव नियमत: सप्रदेशी होते हैं। यदि अलग-अलग गति की अपेक्षा कथन किया जाए तो अप्रदेशी भी हो सकते हैं । अलेशी जीव सप्रदेशी और अप्रदेशी दोनों होते हैं। सलेशी जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान हो सकते हैं । अलेशी जीवों में अज्ञान नहीं होता। केवल एक ज्ञान होता है। किसी भी ज्ञान के होने में लेश्या की उत्तरोत्तर विशुद्धता आवश्यक है। सलेशी जीव आरम्भी और अनारम्भी दोनों होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव शुभयोग की अपेक्षा अनारम्भी एवं अशुभयोग की अपेक्षा आरम्भी है । अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में होने वाले सलेशी जीव अनारम्भी हैं।' सलेशीजीवों के तीन प्रकार बंध होता है - जीव प्रयोग-बंध, अनन्तर-बंध एवं परस्परबंध। जीव के प्रयोग अर्थात् मन आदि के व्यापार के द्वारा जो बंध होता है, वह जीव प्रयोग बंध है। जीव और पुद्गल का प्रथम समय का बंध, अनन्तर बंध एवं उससे आगे के समयों का बंध परस्पर बंध कहलाता है। सलेशी जीवों के कर्म की अल्पता और बहुलता पर विचार करते हुए यह बतलाया गया कि सामान्यत: कृष्णलेशी जीव बहुकर्मा और नीललेशी जीव अल्पकर्मा होते हैं। मगर इस कथन में वैशिष्ट्य तब आ जाता है, जब उपर्युक्त कथन सर्वथा बदल जाता है। ऐसा तब होता है, जब कृष्ण लेश्या वाला नारक जिसका कि अधिकांश आयु स्थिति का क्षय हो गया है, उसी समय उत्पन्न नीललेशी नैरयिक की तुलना में अल्पकर्मा होता है। नीललेशी का आयुष्य उसकी तुलना में बहुत प्रलम्ब है। सलेशी जीव अल्पऋद्धि और महाऋद्धि दोनों प्रकार के होते हैं। जो सलेशी जीव सम्यक्दर्शन से अनुरक्त, निदान रहित एवं शुक्ललेश्या में अवगाहित होते हुए शरीर त्याग करते हैं, वे परभव में सुलभ बोधि होते हैं। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि, निदान सहित एवं कृष्ण आदि अप्रशस्त लेश्या में अवस्थित हो शरीर त्यागने वाले दुर्लभ बोधि होते हैं। 1. प्रज्ञापना 18/68 (उवंगसुत्ताणि खण्ड - 2, पृ. 244) 2. भगवती वृत्ति पत्रांक 261 में उद्धृत; 3. भगवती 8/177, 178 4. भगवती, 1/38 (अंगसुत्ताणि भाग 2, पृ. 12) 5. वही, 20/59, अंगसुत्ताणि भाग 2, पृ. 823 6. वही, 7/67-73, पृ. 284; 7. प्रज्ञापना 17/84 (उवांगसुत्ताणि खण्ड 2, पृ. 225) 8. उत्तराध्ययन 36/258 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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