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लेश्या और मनोविज्ञान
भावलेश्या जीव का उदय निष्पन्न भाव है।' भावलेश्या के वर्गों में परस्पर परिणमन हो सकता है । भावलेश्या के परिणमन का आधार भावों की विशुद्धता और अविशुद्धता है । जब भाव विशुद्ध होते हैं तो प्राणी कृष्णलेश्या से नीललेश्या की स्थिति में पहुँचता है और जब भाव अविशुद्ध होते हैं तो पुन: चेतना का नीललेश्या से कृष्णलेश्या में अवस्थान होता है। वस्तुतः भावलेश्या ही जीव की सुगति और दुर्गति की हेतु है । प्रशस्त भावलेश्या के कारण जीव सुगति का बंधन करता है और अप्रशस्त भावलेश्या दुर्गति का हेतु है ।
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भावलेश्या का कारण द्रव्यलेश्या की वर्गणाएं ही हैं, क्योंकि द्रव्यलेश्या के बिना भावलेश्या का स्थान नहीं बन सकता । विविध गतियों और जातियों में लेश्या का जो विवेचन किया गया है, वह द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से है, क्योंकि भावलेश्या की अपेक्षा नारक और देवता में सभी लेश्याओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है।
भावलेश्या के संबंध में साधक को निर्देश दिया गया कि वह छहों लेश्याओं से प्रतिक्रमण करें । प्रश्न उपस्थित होता है कि तीन अप्रशस्त लेश्याओं से प्रतिक्रमण हो सकता है, पर प्रशस्त लेश्याओं से प्रतिक्रमण कैसे होगा ? टीकाकारों ने इस प्रश्न को समाहित किया है। उनकी दृष्टि में अशुभ से निवृत्त होना एवं शुभ में प्रवृत्त होना ही वस्तुतः पूर्ण प्रतिक्रमण है ।
भावलेश्या के सन्दर्भ में ध्यान की चर्चा करते हुए दो महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। रौद्रध्यान की अपेक्षा आर्त्तध्यान में उपगत जीव के लेश्या परिणाम अधिक संक्लिष्ट होते हैं। ध्यान और लेश्या का पारस्परिक प्रभाव होते हुए भी ध्यान अपने आप में विशिष्ट है, क्योंकि अलेशी अवस्था में शुक्लध्यान का चतुर्थभेद व्युच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती होता है।
भगवती सूत्र में सलेशी पद के साथ प्रथम- अप्रथम, चरम - अचरम आदि अनेक प्रश्नों को जोड़कर लेश्या का जो वर्णन किया गया है, वह उसके द्रव्य और भाव दोनों पक्षों को एक साथ प्रकाशित करता है। सलेशीजीव प्रथम नहीं, अप्रथम है, क्योंकि जीव के जीवत्व की तरह लेश्या भी उसके साथ जुड़ा हुआ एक शाश्वत भाव है।
काल की दृष्टि से उसका कोई आदिकाल ( प्रथम समय) नहीं है जबकि जीव की अलेशी स्थिति प्रथम समय है, अप्रथम समय नहीं है, क्योंकि उसकी आदि है । सलेशी जीव चरम और अचरम दोनों है । वे इसी भव में मुक्त हो भी सकते हैं और नहीं भी । कृष्ण आदि श्या वाले जीव मुक्त नहीं होते और शुक्ल लेश्या वाले जीव मुक्त हो सकते हैं । अलेशीजीव जीवत्व एवं सिद्धत्व की अपेक्षा अचरम हैं ।
1. अनुयोगद्वार सू. 275 (नवसुत्ताणि, पृ. 335 )
2. आवश्यक सूत्र 4/8 (नवसुत्ताणि, पृ. 11 ) 3. भगवती 18 / 11, 27 (अंगसुत्ताणि भाग 2, पृ. 755, 57 )
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