SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष 39 उसमें निरन्तर पुद्गलों का आदान-प्रदान होता रहता है। एक ही द्रव्यलेश्या की पुद्गल संहति में असंख्यात् स्थानों का तारतम्य हो सकता है। जैन दर्शन में लेश्या के भार पर भी विचार किया गया है। द्रव्यलेश्या न एकान्ततः भारी होती है और न हल्की। वह गुरुलघु रूप होती है। जीव द्रव्यलेश्या के पुद्गलों को ग्रहण करता है । द्रव्यलेश्या के विषय में एक विशेष ज्ञातव्य बिन्दु यह है कि इसकी सभी वर्गों का परस्पर परिणमन संभव है। जहां परिणमन होता है, वहां कृष्ण आदि लेश्या के पुद्गल नील आदि लेश्या के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। परिणमन की स्थिति में उनका परस्पर संक्रमण नहीं होता। यद्यपि आकार मात्र एवं परिभाग सादृश्य मात्र से ऐसा प्रतिभासित हो सकता है कि कृष्णलेश्या के पुद्गल नीललेश्या के रूप में परिणत हो गए हैं, पर वस्तुत: वैसा होता नहीं है। इसके पीछे हेतु यही है कि कुछ पुद्गल स्वभाव से अपरिवर्तित स्वरूप वाले होते हैं। उनका परिणमन कृष्ण से कृष्ण के रूप में ही न्यूनाधिक होता है पर नील के रूप में कभी नहीं।' द्रव्यलेश्या की वर्गणाएं रूपी होते हुए भी अतिसूक्ष्म होने के कारण छद्मस्थ के लिए अज्ञेय हैं। पर जब वे ही सकर्म जीव के द्वारा गृहीत होती हैं तो उन गृहीत वर्गणाओं को विशिष्ट साधना करने वाला भावितात्म मुनि जान सकता है। द्रव्यलेश्या के असंख्य स्थान हैं। वे स्थान पुद्गलों की विशुद्धता-अविशुद्धता, मनोज्ञता-अमनोज्ञता, शीतता-उष्णता आदि के हीनाधिक्य की अपेक्षा से हैं । नारक देवता आदि में सामूहिक रूप में लेश्या की जो संख्या बतलाई गई है, वह द्रव्यलेश्या की विवक्षा से ही है, क्योंकि भावलेश्या की दृष्टि से इनमें छहों की प्राप्ति संभव है। प्रज्ञापना सूत्र में लेश्या का जो विवेचन किया गया है, वह प्रधान रूप से द्रव्यलेश्या के स्वरूप को विश्लेषित करता है। भावलेश्या भावलेश्या का स्वरूप द्रव्यलेश्या से बिल्कुल भिन्न है। जहां द्रव्यलेश्या जीव के द्वारा गृहीत होने वाली पुद्गल वर्गणाएं हैं, वहां भावलेश्या स्वयं जीव का परिणमन है । प्रज्ञापना सूत्र में भावलेश्या की अपेक्षा से दस जीव परिणामों में लेश्या को परिगणित किया गया है, चूंकि भावलेश्या जीव है, इसीलिए जीव की सभी विशेषताएं उसमें होना स्वाभाविक है। अपने स्वभाव के अनुरूप भावलेश्या वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से विरहित है। वह अरूपी है, इसीलिए सर्वथा भारमुक्त है। जैनदर्शन उसकी इस भारहीनता को अगुरुलघु शब्द के द्वारा अभिव्यक्त करता है। 1. भगवती 1/408, पृ. 68 2. प्रज्ञापना 17/148-155 (उवांगसुत्ताणि भाग 2, पृ. 236-37) 3. प्रज्ञापना 14/123, पृ. 648; 4. प्रज्ञापना 13/2 (उवांगसुत्ताणि, भाग 2, पृ. 183) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy