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लेश्या और मनोविज्ञान
लेश्या स्थान का अल्प- बहुत्व
जैन- दर्शन में सांख्यिकी विद्या की दृष्टि से गहन विमर्श हुआ है। प्रज्ञापना के रचनाकार एक पद (अध्याय) अल्प - बहुत्व में इसी बिन्दु पर विश्लेषण करते हैं । लेश्याओं के संबंध में भी अल्प - बहुत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। शुक्ललेश्या वाले जीवों का संख्या- परिणाम सबसे कम है। पद्मलेश्या वाले जीव उनसे संख्यातगुणा अधिक है । तेजोलेश्या वाले उनसे संख्यातगुणा अधिक है। अलेशी जीव उनसे अनन्तगुणा अधिक जीव है । कापोतलेश्या वाले अलेशी की अपेक्षा अनन्तगुणा अधिक है । कापोतलेश्या की अपेक्षा नीललेश्या वाले और नीललेश्या वालों की अपेक्षा कृष्णलेश्या वाले और कृष्णलेश्या वालों की अपेक्षा सलेश्य जीव विशेषाधिक हैं। इसे प्रज्ञापना की वृत्ति में विस्तार से समझाया गया है।'
द्रव्यलेश्या : भावलेश्या
लेश्या हमारे व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है। जैसे प्रतिबिम्ब में हमारे बाह्य व्यक्तित्व की छवियां उतरती रहती हैं, वैसे ही लेश्या के तंत्र में हमारा अन्तरंग व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित होता है । लेश्या के मुख्य दो भेद हैं- द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । लेश्या के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों में तेज, दीप्ति, ज्योति, किरण, मण्डल बिम्ब, ज्वाला, वर्ण आदि द्रव्यलेश्या का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं । अध्यवसाय, अन्तःकरण, आत्मपरिणाम, वृत्ति आदि शब्द भावलेश्या के संसूचक हैं।
द्रव्यलेश्या
जब हम द्रव्यलेश्या के स्वरूप पर विमर्श करते हैं तो हमारे सामने पहला प्रश्न यही उपस्थित होता है कि उसका आकार-प्रकार कैसा है ? आगमकारों ने इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा कि द्रव्यलेश्या में पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श होते हैं । जहां द्रव्य - लेश्या के कृष्ण-नील आदि छः प्रकार किये जाते हैं, वहां नैश्चयिक दृष्टि से लेश्या के प्रत्येक वर्ण में सभी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श होते हैं। पर कृष्ण आदि वर्ण के पुद्गलों का प्राधान्य होने से उन्हें उस-उस नाम से पुकारा जाता है । द्रव्यलेश्या एक पौद्गलिक पदार्थ है, इसीलिए पुद्गल के सभी गुण उसमें विद्यमान हैं। क्षेत्र की दृष्टि से उसका अधिकतम विस्तार लोक प्रमाण हो सकता है। सामान्यतः वह असंख्यात आकाश प्रदेशों का अवगाहन कर रहती है।
काल की अपेक्षा वह शाश्वत भाव है। संसार में कभी ऐसा समय न था, न है और न होगा कि जब द्रव्य लेश्या का अस्तित्व न रहा हो । भाव की दृष्टि से वह कभी वर्ण, गंध आदि से वियुक्त नहीं होती है। गुण की दृष्टि से ग्रहण उसका मौलिक गुण है अर्थात्
1. प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्रांक 345; 2. लेश्या कोश, पृ. 2
3. भगवती 12/117 पृ. 566
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