SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष 37 बाल मरण - 1. स्थितलेश्य 2. संक्लिष्टलेश्य 3. पर्यवजातलेश्य। पंडित मरण - 1. स्थितलेश्य 2. असंक्लिष्टलेश्य 3. पर्यवजातलेश्य। बालपंडित मरण - 1. स्थितलेश्य 2. असंक्लिष्टलेश्य 3. अपर्यवजातलेश्य।' बाल मरण बाल मरण मरने वाले जीव को जिस समय कृष्ण आदि अशुद्ध लेश्याएं न शुद्ध होती हैं और न अधिक संक्लिष्टता की ओर बढ़ती हैं, उस समय उसका स्थितलेश्य मरण होता है। जब कृष्णलेश्या वाला जीव मरकर कृष्णलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है तब यह . स्थिति बनती है। ____ जब अशुद्ध लेश्या अधिक संक्लिष्ट होती जाती है तब संक्लिष्टलेश्य मरण होता है। जब नील आदि लेश्या वाला जीव मरकर कृष्णलेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है, तब यह स्थिति बनती है। जब अशुद्धलेश्या शुद्ध बनती जाती है तब पर्यवजातमरण होता है। कृष्ण या नील लेश्या वाला जीव जब मरकर कापोत लेश्या वाले नरक में उत्पन्न होता है, तब यह स्थिति होती है। नारक और देवता को उस क्षेत्र में विद्यमान द्रव्यलेश्या की वर्गणाओं की विवक्षा से स्थितलेश्या कहा गया है, उनके परिणाम भी अधिकांशत: उस लेश्या के अनुरूप होते हैं, क्योंकि द्रव्यलेश्या और भावलेश्या एक-दूसरे की पूरक है। परिणाम मन के परिणाम शुद्ध और अशुद्ध दोनों होते हैं। उनके निमित्त से लेश्या भी शुद्ध और अशुद्ध दोनों होती हैं । निमित्त और उपादान दोनों का पारस्परिक संबंध है। लेश्या के निमित्त को द्रव्यलेश्या और मन के परिणाम को भावलेश्या कहा गया है। __ भावलेश्या आत्मा का परिणाम है। यह संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट योग से अनुगत है। उसके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर और मन्दतम आदि विविध भेद हैं। उन भेदों की अपेक्षा से भावलेश्या के अनेक प्रकार हैं। आगमों में लेश्या के परिणामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यदि जीव के संक्लिष्ट परिणामों में हानि होती है तो वह अशुभ कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य अंशों में क्रमशः परिणमन करता है। जीव के संक्लिष्ट परिणामों में वृद्धि होने पर कापोतलेश्या वाला क्रमश: नील और कृष्णलेश्या की स्थिति में पहुंच जाता है। शुभलेश्याओं के परिणमन का क्रम भी यही है। उत्तराध्ययन सूत्र में मानसिक परिणामों की तरतमता के आधार पर लेश्या के तीन, नौ, सत्ताईस, इक्यासी, दो सौ तैतालीस परिणमन-विकल्प बताए गए हैं।' 1. ठाणं 3/520-522; 2. गोम्मटसार, जीवकाण्ड - 501-503 3. उत्तराध्ययन 34/20 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy