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________________ 36 लेश्या और मनोविज्ञान लेश्या और दुर्गति-सुगति जीव अपने आत्मपरिणामों के अनुसार तिर्यञ्चों आदि गतियों में परिभ्रमण करता है। नरक और तिर्यञ्च रूप को दुर्गति माना गया है। देव तथा मनुष्य के रूप में पैदा होने को सुगति । कारण में कार्य का उपचार करने पर लेश्या को सुगति और दुर्गति का सर्जक कहा गया है। कृष्ण, नील, कापोत - इन तीन अशुभ लेश्याओं को दुर्गति में जाने का कारण बताया है और तेज, पद्म तथा शुक्ल - इन तीन शुभ लेश्याओं को सुगति में जाने का कारण बताया है।' प्रख्यात टीकाकार मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में कहा है - दुर्गतिगामिन्यः संक्लिष्टाध्यवसाय हेतुत्वात् । सुगतिगामिन्यः प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात् ॥ संक्लिष्ट अध्यवसायों के कारण लेश्या दुर्गति की एवं असंक्लिष्ट अध्यवसायों के कारण लेश्या सुगति का कारण बनती है। जैसे वृक्ष और बीज के बीच एक-दूसरे की उत्पत्ति की श्रृंखला चलती रहती है, वैसे ही अध्यवसाय और लेश्या की कड़ी कहीं विच्छिन्न नहीं होती। उत्तराध्ययन में इसी कारण से शुभलेश्या को धर्मलेश्या और अशुभलेश्या को अधर्मलेश्या कहा है।' सन्दर्भ जन्म और मृत्यु का लेश्या का सिद्धान्त केवल जीव की उत्पत्ति के साथ ही जुड़ा हुआ नहीं है, मृत्यु के साथ भी उसका गहरा संबंध है। जीव मृत्यु के समय जिस लेश्या के पुद्गलों को ग्रहण करता है, मरणोपरान्त वैसी ही लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जिस जीव को जिस योनि में जाकर जन्म लेना होता है, मरणकाल में वैसी ही लेश्या प्राप्त हो जाती है। मृत्यु और जन्म के सन्दर्भ में लेश्या की चर्चा करते हुए यह कथन विशेष रूप से ध्यातव्य है कि लेश्याओं की प्रथम और अन्तिम समय की परिणति में किसी भी जीव की भवान्तर में उत्पत्ति नहीं होती। भवान्तर लेश्या परिणति के अन्तर्मुहूर्त बीतने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर ही जीव भवान्तर में जाता है। मरण के समय लेश्या परिणाम ___मरणकाल में होने वाली लेश्या के विविध परिणमन की अपेक्षा मृत्यु के तीन प्रकार हैं - 1. स्थित लेश्य मरण 2. संक्लिष्ट लेश्य मरण 3. पर्यवजात (विशुद्धमान) लेश्य मरण। लेश्या की अपेक्षा से बाल-मरण, पंडित-मरण और बाल-पंडित मरण की विवक्षा से ठाणं सूत्र में तीन भेद निर्दिष्ट हैं - 1. ठाणं - 3/517-183; 2. प्रज्ञापना 17/4 टीका 3. उत्तराध्ययन 34/56, 57; 4. उत्तराध्ययन 34/60 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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