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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
संख्या / स्थान
के स्थानों अथवा भेदों पर विमर्श करते समय हमें दो दृष्टियों से सोचना होगा। द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से लेश्या के असंख्य स्थान हैं। ये स्थान पुद्गल की मनोज्ञताअमनोज्ञता, सुगन्धता - दुर्गन्धता, विशुद्धता - अविशुद्धता तथा शीत-रुक्षता या स्निग्धउष्णता की हीनाधिकता की अपेक्षा से है । भावलेश्या में होने वाले तारतम्य की अपेक्षा उसके भेद करें तो काल की अपेक्षा असंख्य अवसर्पिणी उत्सर्पिणी समय जितने होंगे अथवा क्षेत्र की अपेक्षा से इसकी गणना करें तो लोकाकाश जितने होंगे। असंख्य प्रदेशात्मक माना गया है।'
भावलेश्या के स्थान कृष्णादि द्रव्यलेश्या सापेक्ष है, क्योंकि द्रव्यलेश्या के स्थान के बिना भावलेश्या का स्थान बन नहीं सकता है। जितने द्रव्यलेश्या के स्थान होते हैं, उतने ही भावलेश्या के स्थान होने चाहिए।
श्या की स्थिति
लेश्या की स्थिति का वर्णन श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में कुछ भिन्नता लिए हुए है। इस कालमान का मापन सूत्र है- कषायों की तीव्रता और मन्दता के आधार पर होने वाला आत्मपरिणाम ।
श्वेताम्बर मान्यता'
श्या
जघन्य
उत्कृष्ट
कृष्णलेश्या अन्तर्मुहूर्त्त अनन्तमुहूर्त अधिक
तैतीस सागर
लेश्या स्थिति
कापोतलेश्या अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें
भाग अधिक तीन सागर
पद्मलेश्या अन्तर्मुहूर्त शुक्ललेश्या अन्तर्मुहूर्त
नीललेश्या अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें अन्तर्मुहूर्त्त भाग अधिक दस सागर
अन्तर्मुहूर्त
तेजोलेश्या अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें अन्तर्मुहूर्त्त भाग अधिक दो सागर मुहूर्त्त अधिक दस सागर
मुहूर्त अधिक तैतीस सागर
1. उत्तराध्ययन 34/33;
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दिगम्बर- मान्यता
जघन्य
अन्तर्मुहुर्त
अन्तर्मुहूर्त्त
अन्तर्मुहूर्त
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उत्कृष्ट
तैतीस सागर
सत्तरह सागर
सात सागर
दो सागर
2. वही, 34/34-39; 3. तत्वार्थ राजवार्तिक पृ. 241
अठारह सागर
तैतीस सागर
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