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________________ लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष रूप में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा, आभरण, आच्छादन, दर्पण, मणि, कांगिणी - चक्रवर्ती का रत्न आदि को परिगणित किया है। यहां सूर्य, चन्द्र आदि का तात्पर्य उनके विमानों से है। जैन मान्यता के अनुसार ये शस्त्रोपहत होने के कारण अजीव है। रजत, ताम्र आदि धातुओं को भी इसी वर्गीकरण के अन्तर्गत रखा जा सकता है 1 लेश्याओं के वर्ण श्या शब्द से प्रतिध्वनित होता है कि इस विषय में वर्ण की चर्चा मुख्य है। अलगअलग लेश्याओं के वर्ण के सन्दर्भ में इस प्रकार विवेचन उपलब्ध होता है : कृष्णलेश्या : स्निग्ध मेघ, महिष, द्रोण, काक, खंजन तथा काजल की तरह कृष्ण नीलेश्या : नील अशोक, घासपक्षी की पांख, वैडूर्यमणि की भांति स्निग्ध नील वर्ण । कापोतलेश्या : अलसी (अलस-धान्य विशेष के फूल ) कोफिल या तेलकंटक वनस्पति, पारापत की ग्रीवा की भांति कापोती वर्ण । तेजोलेश्या : हिंगुल, उदीयमान सूर्य, शुकतुण्ड के समान लाल । पद्मलेश्या : टूटा हुआ हरिताल, पिण्डहरिद्र (विशेष हल्दी) तथा सन और असन के पुष्प सदृश पीला । शुक्ललेश्या शंख, अंक-मणि विशेष, कुन्दन पुष्प, दूध और तूल के समान श्वेत गोम्मटसार के रचनाकार आचार्य नेमीचन्द्र का अभिमत इस प्रकार है - वर्ण के रूप में कृष्ण, नील आदि लेश्या क्रमशः भौंरें, नीलम, कबूतर, स्वर्ण, कमल और शंख के समान होती हैं । लेश्या के गन्ध कृष्ण, नील आदि छ: लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्याओं को अप्रशस्त और शेष तीन लेश्याओं को प्रशस्त माना गया है। अप्रशस्त लेश्याओं की गन्ध मृत गाय, मृत कुत्ता और मृत सर्प की दुर्गन्ध से भी अनन्तगुना दुर्गन्ध वाली होती हैं तथा अन्तिम तीन लेश्याएं सुरभित पुष्पों तथा घिसे हुए सुगन्धित द्रव्यों से भी अनन्तगुना सुगन्ध वाली होती हैं। 1 श्या के रस द्रव्यलेश्या के छः भेद पांच रस वाले होते हैं 1. कृष्णलेश्या 2. नीललेश्या 3. कापोतलेश्या 4. तेजोलेश्या 33 1. उत्त. निर्युक्ति गा. 34/535-38, पृ. 650; 2. उत्तराध्ययन 34/4-9 3. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, 495; 4. उत्तराध्ययन 34/16-17 Jain Education International तुम्बे से अनन्तगुना कटुक । त्रिकुट (सोंठ, पीपल और कालीमिर्च ) से अनन्तगुना तिक्त । केरी से अनन्तगुना कषैला । पके आम तथा कपित्थ से अनन्तगुना मधुर आम्ल । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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