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लेश्या और मनोविज्ञान
यद्यपि उत्तराध्ययन में ग्यारह द्वारों में ही लेश्या की चर्चा की गई है पर उन द्वारों में नाम, लक्षण, स्थिति और आयु नये द्वार हैं।
दिगम्बर आम्नाय के प्रमुख ग्रन्थ गोम्मटसार में भी लेश्या की चर्चा पन्द्रह द्वारों में हुई है पर इनमें से कई द्वार ऐसे हैं जिनकी चर्चा पूर्ववर्णित ग्रंथों में नहीं है। प्रस्तुत ग्रंथ में नाम द्वार के स्थान पर निर्देश शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त नवीन समाविष्ट द्वार इस प्रकार है - संक्रम, कर्म, स्वामी, साधना, काल और अन्तर।'
उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में लेश्या का विवेचन लेश्या के दोनों रूपों - द्रव्य और भाव की अपेक्षा से है। यदि हम इन्हें द्रव्यलेश्या और भावलेश्या के भिन्न-भिन्न वर्गीकृत करें तो यह वर्गीकरण इस प्रकार होगा -
द्रव्यलेश्या : नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, स्थिति, स्थान, अल्पबहुत्व।
भावलेश्या : शुद्धत्व, प्रशस्तत्व, संक्लिष्टत्व, परिमाण, स्थान, गति, लक्षण, अल्पबहुत्व। नाम/निर्देश
लेश्या के दो प्रकार बतलाए हैं - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। स्थानांग, समवायांग, भगवती, उत्तराध्ययन आदि आगमों में लेश्या के छ: भेद कहे हैं - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कपोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत यह वर्गीकरण नैगमनय की विवक्षा से है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से लेश्या के असंख्य वर्गीकरण हो सकते हैं, क्योंकि हमारे आत्म-परिणामों के असंख्य प्रकार बनते हैं। __लेश्या के इन प्रचलित छ: भेदों के अतिरिक्त संयोगजा नाम की एक सातवीं लेश्या भी मानी गई है। यह शरीर के छाया के रूप में है। औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारक-मिश्र और कार्मण - ये जीव शरीर के सात प्रकार हैं। इनको काययोग भी कहा जाता है। ये काययोग के सात प्रकार बतलाए गए हैं। इन सभी शरीरों की छाया भी इसी संयोगजा नाम की सातवीं लेश्या में समाविष्ट होती है। उत्तराध्ययन चूर्णि के रचनाकार आचार्य जयसिंह सूरि का इस सन्दर्भ में मत विशेष ध्यातव्य है।
कर्मलेश्या और नो-कर्मलेश्या के रूप में भी लेश्या का एक वर्गीकरण प्राप्त होता है। कर्मलेश्या का तात्पर्य है - सकर्मा (कर्म रहित) प्राणी से होने वाली लेश्या और नोकर्मलेश्या निष्कर्म अर्थात् अकर्मा (निर्जीव प्राणी) से निकलने वाली लेश्या। जिस प्रकार सजीव प्राणी के शरीर से निरन्तर लेश्या विकीर्ण होती रहती है उसी प्रकार निर्जीव पदार्थों से भी एक रश्मि मण्डल निकलता रहता है। प्राचीन आचार्यों ने नोकर्मलेश्या के
1. गोम्मटसार जीव, 491-92 2. जयसिंहसूरि - सप्तमी संयोगजा इयं च शरीरच्छायात्मिका परिगृह्यते अन्येत्वौदारिकौदारिक
मिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्माणि सप्तविधां जीवद्रव्यलेश्या मन्यते तथा। - उत्तराध्ययन 34, अगस्त्य चूर्णि 350
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