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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
का संबंध भावधारा से है। चिन्तन और भावधारा दोनों भिन्न हैं। चिन्तन मन की क्रिया है और भाव चित्त की क्रिया। जैसा भाव होता है वैसा विचार बनता है, भाव विचार का जनक है पर भाव और विचार एक नहीं। भाव चेतना का स्पन्दन है, वह स्थायी तत्त्व है। मन उत्पन्न होता है और विलीन होता है। वह फिर उत्पन्न होता है और विलीन होता है इसलिए अस्थायी तत्त्व है। इस दृष्टि से मनोयोग और लेश्या एक नहीं है।
एकेन्द्रिय से लेकर असन्नी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में लेश्या होती है पर मनोयोग नहीं होता।' इससे भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि लेश्या और मनोयोग एक नहीं।
लेश्या आन्तरिक अध्यवसाय है। वह कर्म शरीर से परिस्पन्दित और तैजस शरीर से अनुप्राणित होकर चित्त के साथ काम करती है । वह हमारी भावधारा है जो मानसिक चिन्तन या विचार को प्रभावित करती है। मन का संबंध केवल औदारिक शरीर या स्थूल शरीर के साथ है। लेश्या का संबंध कर्म शरीर, तैजस शरीर और औदारिक शरीर तीनों के साथ है। भावयोग के साथ भावलेश्या का अन्वय व्यतिरेकी संबंध घटित नहीं होता। केवली के काययोग और वचनयोग, ये दोनों भावात्मक (भावयोग) होते हैं तथा मनोयोग द्रव्ययोग होता है। केवली के शुक्ललेश्या होती है वह भी द्रव्यलेश्या है। भावलेश्या उनके नहीं होती। यदि भावलेश्या उनके हो तो फिर सिद्धों में भी लेश्या का अस्तित्व मानना पड़ेगा।
आचार्य मलयगिरि ने लेश्या को योग निमित्तज बतलाया है। यह कथन द्रव्ययोग और द्रव्यलेश्या की दृष्टि से है, क्योंकि द्रव्यलेश्या की वर्गणा का संबंध तैजस शरीर की वर्गणा से है। इसलिए द्रव्यलेश्या और तैजस शरीर की वर्गणा का संबंध अन्वय-व्यतिरेकी माना जा सकता है किन्तु भाव लेश्या और योग में अन्वय-व्यतिरेकी संबंध नहीं। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी ने इस ओर संकेत किया कि "जहां सलेशी तिहां सजोगी, जोग तिहां कही लेस, जोग लेस्यां में कायंक फेर छे, जाण रह्या जिणरेस॥" योग और लेश्या में वास्तविक अन्तर क्या है, यह तो जिनेश्वर भगवान ही जानते हैं।' लेश्या विवेचन के विविध कोण
जैन साहित्य में लेश्या का विवेचन किसी एक कृति में, एक ग्रंथ में उपलब्ध नहीं होता। वह अनेक ग्रंथों में प्राप्त होता है। भगवती, प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन का लेश्या विवेचन विशेष मननीय है। इसमें परिणाम, वर्ण आदि द्वारों से लेश्या का विवेचन किया गया है। भगवती एवं प्रज्ञापना में समागत द्वार इस प्रकार है --
1. परिणाम 2. वर्ण 3. रस 4. गन्ध 5. शुद्ध 6. अप्रशस्त 7. संक्लिष्ट 8. ऊष्ण 9. गति 10. परिमाण 11. प्रदेश 12. वर्गणा 13. अवगाहना 14. स्थान 15. अल्पबहुत्वा '
1. कर्मग्रन्थ 4/स्वोपज्ञ टीका, पृ. 174 2. झीणी चरचा, ढाल 1/गा.9 3. प्रज्ञापना - 17/4/1 (उवंगसुत्ताणि, खण्ड - 2, पृ. 229)
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