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लेश्या और मनोविज्ञान
सिद्धान्त की भाषा में कहा गया कि लेश्या की उत्पत्ति-अवस्थिति कषाय की उत्पत्तिअवस्थिति पर निर्भर नहीं करती है। कषाय के साथ लेश्या का सहवस्थान नहीं है, क्योंकि अकषायी-सकषायी दोनों प्रकार के जीव सयोगी सलेशी हो सकते हैं । वीतराग अकषायी होते हैं पर उनके योगात्मा होती है। कषाय के अभाव में लेश्या की स्थिति रहती है, इसलिए कषायात्मा में लेश्या का अन्तर्भाव नहीं हो सकता। द्रव्यात्मा आत्मा का अपरिणामी स्वभाव है और भाव आत्मा का परिणामजन्य। अतः लेश्या द्रव्यात्मा के अन्तर्गत भी नहीं। ज्ञानीअज्ञानी, अल्पज्ञानी-बहुज्ञानी, छद्यस्थ-केवली सभी के लेश्या होती है। केवली में सयोगी के लेश्या होती है, अयोगी के नहीं। अलेशी में सिर्फ केवलज्ञान होता है, अत: ज्ञान लेश्या के होने न होने का आधार नहीं है। अत: लेश्या ज्ञानात्मा के अन्तर्गत भी नहीं। मिथ्यादर्शी, सम्यग्दर्शी दोनों के लेश्या होती है। केवलदर्शी में सयोगी के लेश्या होती है, अयोगी के नहीं। अत: दर्शन लेश्या का कारण नहीं है, इसलिए दर्शनात्मा में भी लेश्या का अन्तर्भाव नहीं। यही बात उपयोगात्मा के विषय में है। मिथ्यात्वी में चारित्रात्मा नहीं होती पर लेश्या होती है। सम्यक्त्वी में चारित्रात्मा होती भी है और नहीं भी होती है पर लेश्या दोनों स्थिति में होती है। चौदहवें गुणस्थान में चारित्रात्मा के होते हुए भी लेश्या नहीं होती, अत: चारित्रात्मा में भी लेश्या का अन्तर्भाव नहीं। अब वीर्यात्मा और योगात्मा के विषय में एक बात विशेष द्रष्टव्य है।
इसका तात्पर्य यह है कि जीव का जब कर्मों के साथ बन्धन होता है, तब तैजस और कार्मण शरीर का निर्माण होता है। जीव आहार आदि ग्रहण करता है तो औदारिक आदि शरीर का निर्माण होता है। इस अपेक्षा से कहा गया है कि जीव शरीर से प्रवाहित होता है, क्योंकि बन्धन और आहार करने वाला जीव ही है। वीर्यान्तराय के क्षय और क्षयोपशम से जीवात्मा का वीर्यरूप जो परिणमन होता है, वह जीव के शरीर में ही होता है । मन, वचन, कायरूप परिस्पन्दन, हलन-चलन आदि जीव का जो व्यापार या चेष्टा है वह वीर्य के बिना सम्भव नहीं होती। इसीलिए कहा गया है कि योग वीर्य से प्रवाहित होता है। अत: लेश्या न तो वीर्यान्तराय और न ही योगात्मा में अन्तर्निहित की गई है।
एक मान्यता यह भी है कि योग और लेश्या एक नहीं, दो हैं। योग के दो रूप बनते हैं - द्रव्ययोग और भावयोग । द्रव्ययोग पौद्गलिक है और भावयोग आत्मिक परिणति। योग की तरह लेश्या भी द्रव्यलेश्या और भावलेश्या दो रूप में हैं। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक परिणति है और भावलेश्या आत्मिक परिणति। इस अर्थ में योग और लेश्या में समानता प्रतीत होती है किन्तु दोनों एक नहीं कहे जा सकते।
जहाँ लेश्या है वहाँ योग है और जहाँ योग है वहाँ लेश्या है। यह इनका सहावस्थान है। इनमें साहचर्य का संबंध है। किन्तु इसका स्वरूप एक नहीं। काययोग का संबंध शरीर की क्रिया से है। वचन योग का वाणी से और मनोयोग का संबंध चिन्तन से है । पर लेश्या
1. झीणी चरचा, टिप्पणी - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 8
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