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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
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परिणाम होते हैं तथा समुच्छिन्न क्रिया ध्यान अलेशी के होता है। अतः लेश्या के बाद योग परिणाम का वर्णन किया गया है।
जिस प्रकार द्रव्यमन के पुद्गल और द्रव्य वचन के पुद्गल काययोग से गृहीत होते हैं उसी प्रकार लेश्या पुद्गल भी काय योग द्वारा ग्रहण होने चाहिए। 13वें गुणस्थान के शेष के अन्तर्मुहूर्त में मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्थ निरोध हो जाता है, जब लेश्या परिणाम तो होता है लेकिन काययोग की अर्धता-क्षीणता के कारण द्रव्य लेश्या के पुद्गलों का ग्रहण रुक जाना चाहिए। 14वें गुणस्थान के प्रारम्भ में जब योग का पूर्ण निरोध हो जाता है तब लेश्या का परिणमन भी सर्वथा रुक जाता है। अतः जीव अयोगी अलेशी हो जाता है। ___ योग और लेश्या के विषय में एक दृष्टिकोण यह भी है कि दिगम्बर साहित्य में मार्गणाओं की क्रमिकता में योग के बाद लेश्या मार्गणा कही गयी है। जिसका अभिप्राय है कि योग द्वारा होने वाला कर्मबंध संसार का कारण नहीं होता। इससे प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है। पहले क्षण में बँधते हैं, दूसरे क्षण में निर्जीण हो जाते हैं। लेकिन योग द्वारा ग्रहण किए गए कर्मपुद्गलों की स्थिति और उनमें फल देने की शक्ति का निर्माण लेश्या द्वारा होता है। लेश्या के साथ कषाय जब तक जुड़ा रहता है तब तक लेश्या कषायिक तीव्रता
और मन्दता के आधार पर कर्मपुद्गलों की काल, मर्यादा और फलदान की शक्ति न्यूनाधिक निर्मित होगी। इसलिए योग के बाद लेश्यामार्गणा का क्रम रखा गया है।
कषाय और योग में लेश्या का अन्तर्भाव मानना युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुए धर्म का किसी एक के साथ एकत्व अथवा समानता नहीं होती और दो के मिश्रण से उत्पन्न तीसरी वस्तु उन दोनों से भिन्न और अपनी पृथक् सत्ता रखती है।
योग और कषाय से लेश्या को भिन्न मानने का यह भी कारण है कि विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व अविरति आदि अवलम्बन रूप बाह्य पदार्थों के संपर्क से लेश्याभाव को प्राप्त हुए योग और कषाय से केवल योग या केवल कषाय के कार्य से भिन्न जो संसारवृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि होती है उसे केवल योग या केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता। अतएव लेश्या उन दोनों से भिन्न है।' __लेश्या, योग और कषाय के पारस्परिक संबंध के विषय में आठ आत्माओं का उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन आठ आत्माएँ मानता है। द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा तथा वीर्यात्मा। लेकिन लेश्या रूप आत्मा को नहीं मानता। लेश्या आत्मा का विशिष्ट परिणाम होते हुए भी स्वयं आत्मा का भेद नहीं है तो आत्मा के आठ भेदों में से किसी एक में उसका अस्तित्व अन्तर्निहित अवश्य होना चाहिए।
1. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, 9; 2. कर्मग्रन्थ 4 की व्याख्या, पृ. 20
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