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लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष
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अशुभलेश्या के कर्म पुद्गलों को ग्रहण करने से पापकर्म का बन्ध होता है। पापकर्म का एक मात्र हेतु मोहनीय कर्म है, उसके सिवाय अन्य किसी कर्म से इसका संबंध नहीं होता है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अकलंक लिखते हैं - कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या, कषाय के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है। आत्म-परिणामों की शुद्धता और अशुद्धता की अपेक्षा से इसे कृष्ण आदि नामों से पुकारा जाता है।
लेश्या की उपरोक्त परिभाषाओं एवं अन्य विवरण के आधार पर उसके संबंध में मुख्य तीन अभिमत हमारे सामने आते हैं -
1. योग परिणाम लेश्या 2. कर्म वर्गणानिष्पन्न लेश्या
3. कर्मनिस्यन्द लेश्या योग परिणाम लेश्या
इस मत के मुख्य प्रवर्तक आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य मलयगिरि एवं उपाध्याय विनयविजयजी हैं। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र के लेश्या पद की प्रस्तावना में इस विषय पर पर्याप्त विवेचन किया है। लेश्या और योग में अविनाभावी संबंध है। जहाँ योग का विच्छेद होता है वहीं लेश्या परिसम्पन्न होती है। पर ऐसा होने पर भी लेश्या योगवर्गणा के अन्तर्गत नहीं है। वह एक स्वतंत्र द्रव्य है। कर्मशरीर का स्थूल परिणमन योग-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति है तथा उसका सूक्ष्म परिणमन अतीन्द्रिय ज्ञानी ही पकड़ सकते हैं। कर्म के उदय और क्षयोपशम से जैसे हमारे योगों में परिवर्तन आता है, वैसे ही लेश्या भी सतत् परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरती रहती है। लोकप्रकाश में उपाध्याय विनयविजयजी ने भी इसी मत को ग्राह्य माना है।' कर्मवर्गणा निष्पन्न लेश्या
उत्तराध्ययन के टीकाकार शांतिसूरि का मत है कि लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। लेश्या कर्म रूप होते हुए भी उससे पृथक् है, क्योंकि दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। ___ उपर्युक्त अभिमतों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जीव जब तक कार्मण वर्गणाओं का आकर्षण करता रहता है तब तक ही लेश्या का अस्तित्व रहता है। उसके पश्चात् जीव अलेश्य हो जाता है। कर्मनिष्यन्द लेश्या
लेश्या कर्म के निर्झर के रूप में है। जैसे निर्झर नित नए-नए रूप में प्रवाहित होता रहता है, वैसे ही लेश्या प्रवाह एक जीव के साथ अपने असंख्य रूप दिखलाता है। निस्यन्द
1. तत्वार्थराजवार्तिक 2/6; 2. प्रज्ञापना पद 17 की टीका, पृ. 330 3. लोकप्रकाश, सर्ग 3/285; 4. उत्तराध्ययन 34 टीका, पृ. 650
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