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लेश्या और मनोविज्ञान
कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्द प्रयुज्यते ॥ इस गाथा के रचनाकार का नाम आज भी अन्वेषणीय है। स्फटिक मणि में जिस वर्ण के धागे को पिरोया जाता है वह वैसी ही प्रतिभाषित होने लगती है। इसी प्रकार जैसी लेश्या की वर्गणाएँ जीव के सम्मुख आती हैं, वैसे ही उसके आत्म-परिणाम बन जाते हैं। लेश्या आत्म-परिणामों की संवाहिका है। लेश्या की यह परिभाषा उसके द्रव्य और भाव उभय रूपों का प्रतिनिधित्व करती है। ___ भगवती सूत्र की वृत्ति में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं - कृष्णादि द्रव्यसानिध्यजनितो जीवपरिणामो लेश्या । आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों को श्लिष्ट करने वाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये योग के परिणाम विशेष हैं।' योग का निरोध होने पर इनका भी निरोध हो जाता है। स्थानांग सूत्र की वृत्ति में एक मत उद्धृत करते हुए अभय देव सूरि लिखते हैं - लेश्या कर्म निर्झर रूप है। प्राणी इसके द्वारा कर्मों का संश्लेष करता है। जिस प्रकार वर्ण की स्थिति का निर्धारण उसमें विद्यमान श्लेष द्रव्य के आधार पर होता है, वैसे ही कर्मबंध की स्थिति का निर्धारण लेश्या से होता है। लेश्या की परिभाषा के सन्दर्भ में इन्हीं सब बिन्दुओं की विस्तृत विवेचना आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में की है। इस प्रसंग में उन्होंने लेश्या के संबंध में उठने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को उत्तरित भी किया है।
द्रव्यलेश्या के पुद्गलों का ग्रहण किस कर्म उदय से होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं - लेश्या को संसारत्व, असिद्धत्व आदि की तरह उदयभाव माना गया है। यह उदय शरीर नाम कर्म से ही होना चाहिए, क्योंकि बाहर से जो भी पुद्गल वर्गणाएँ ग्रहण की जाती हैं वे सब शरीर के द्वारा ही ग्रहण की जाती हैं। इसका एक दूसरा हेतु यह भी है कि लेश्या को योग का परिणाम मानने पर भी यह नामकर्म के उदय से ही निष्पन्न होगा, क्योंकि कोई भी योग-मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति शरीर कर्म के बिना नहीं होती। इस परिणति में हमें अन्तराय-कर्म के क्षयोपशम को भी सहवर्ती मानना होगा, क्योंकि योग अन्तरायकर्म के क्षयोपशम के साथ ही निष्पन्न होता है।
सामान्यतः ऐसा समझा जाता है कि शुभ नामकर्म के उदय से शुभलेश्या पुद्गलों का और अशुभ नामकर्म के उदय से अशुभलेश्या पुद्गलों का ग्रहण होना चाहिए। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जाचार्य ने इस संदर्भ में अपनी कृति "झीणी चर्चा" में आगमिक दृष्टि को प्रतिपादित किया है।
मोह कर्म रो उदै निपन छे, अशुभ लेश्या त्रिहुं व्याप । पापकर्म बंध एक ही थी सातकर्म सूं नहिं बंधे पाप ॥
1. भगवती सूत्र 1/2/ प्र. 98 की टीका; 2. ठाणं, 1/51 सूत्र की टीका 3. प्रज्ञापना वृत्ति 17, प्रारम्भ में टीका; 4. झीणी चर्चा 1/16
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